शैव धर्म और उसके सम्प्रदाय

जब सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था, तो केवल शिव ही विद्यमान थे। शिव अपरिवर्तनशील हैं और वही सूर्य के प्रकाश हैं। सृष्टि की संपूर्ण बुद्धि के स्रोत भी वही हैं। उनका आकार अदृश्य है और उनका अजर अमर स्वरूप हृदय में वास करता है। शिव वास्तव में सृष्टि के निर्माता और विध्वंसक हैं और उनको केवल प्रेम, भक्ति और आस्था द्वारा ही पहचाना जा सकता है।

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 शैव धर्म का उद्भव-

  • शैव धर्म के उद्भव का मूल कारण ऋग्वेद में रुद्र की अवधारणा के फल स्वरुप बताया जाता है।
  • ऋग्वेद में रुद्र नामक देवता प्रकृति के विध्वंसक और विनाशक रूप का प्रतिनिधित्व करते थे।
  • यजुर्वेद में कहा गया है कि जब रुद्र का संपूर्ण क्रोध शांत हो जाता है, तो वह शंभू अथवा शंकर के रूप में बदल जाते हैं और उनका यह रूप अत्यधिक कल्याणकारी है।

सिंधु सभ्यता में शिव पूजा-

  • सिन्धुकाल में भी शैव धर्म अस्तित्व में था। 
  • सिन्धु  सभ्यता में शैव धर्म के उपास्य शिव की उपासना पशुपति शिव के रूप में की जाती थी।

वैदिक काल में शिव की आराधना -

  • वैदिक काल में रूद्र रूप शिव की आराधना और अर्चना के लिए अनेक ॠचाओं की रचना की गई है।
  • वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार राजा भगीरथ ने शिव की तपस्या करके गंगा को इस पृथ्वी पर अवतरित किया था। 
  • रामायण में यह भी उल्लेख है कि समुद्र मंथन के फलस्वरुप जब नवरत्न प्राप्त हुए तो उनमें से विष शिव ने ही ग्रहण किया था। इस विष को शिवजी ने  गले से नीचे नहीं जाने दिया क्योंकि इससे उनके हृदय में विद्यमान विष्णु की मूर्ति को कष्ट हो सकता था।
  • अर्जुन द्वारा पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति के लिए हिमालय पर तपस्या करने से शिव द्वारा उन्हें विराट रूप में दर्शन देने की चर्चा है।
  • वासुदेव कृष्ण द्वारा पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति के लिए शिव की आराधना का उल्लेख भी महाभारत में है।

शैव धर्म की संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठा-

  •  शैव धर्म की एक संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठा ईस्वी शताब्दी से 200 वर्ष पूर्व हो चुकी थी।
  • ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दी में पतंजलि के महाभाष्य में पहली बार यह विवरण मिलता है कि शिव की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती थी।
  • गुप्त काल में शिव एवं पार्वती की संयुक्त मूर्तियों का निर्माण किया जाता था।
  • त्रिमूर्ति की पूजा भी सर्वप्रथम गुप्त काल में ही आरंभ हुई।
  • इसी समय सर्वप्रथम विष्णु के साथ शिव की मूर्तियां हरिहर के रूप में बनाई गई।

वामन पुराण में निम्नलिखित 4 शैव संप्रदाओं का उल्लेख किया गया है-

  • पाशुपत, कापालिक, कालामुख और वीर शैव।

पाशुपत संप्रदाय-

  • यह शैव धर्म का सबसे पुराना सम्प्रदाय है। 
  • इसके संस्थापक लकुलीश थे। जिन्हे भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है। 
  • इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया है। 
  • इस मत का प्रमुख सैद्धांतिक ग्रन्थ पाशुपतसूत्र है।

 कापालिक-

  • कापालिकों के इष्टदेव भैरव थे। जो शंकर का अवतार माने जाते थे। 
  • यह संप्रदाय अत्यंत भयंकर और आसुर प्रवृत्ति का था। 
  • इसमें भैरव को सुरा और नरबलि का नैवेद्य चढ़ाया जाता था। 
  • इस संप्रदाय का मुख्य केंद्र श्रीशैल नामक स्थान था जिसका प्रमाण भवभूति के मालतीमाधव में मिलता है।

 कालामुख-

  •  इस संप्रदाय के अनुयाई कापालिक वर्ग के ही थे किंतु वे उनसे भी अतिवादी और आसुरी प्रकृति के थे
  • शिवपुराण में उन्हें महाव्रतधर कहा गया है। 
  • इस संप्रदाय के अनुयायी नर कपाल में भोजन, जल तथा  सुरापान करते थे तथा शरीर में भस्म लगाते थे।

शैव संप्रदाय -

  • इस संप्रदाय के अनुसार कर्ता शिव हैं, कारण शक्ति और उपादान बिंदु हैं। 
  • इस मत के 4 पाद या बन्धन हैं- विद्या, क्रिया, योग और चर्या। 
  • तीन पदार्थ हैं- पति, पशु और पाश।

शैव धर्म के अन्य संप्रदाय

 लिंगायत संप्रदाय -

  • दक्षिण भारत में भी शैव धर्म का विस्तार हुआ है। 
  • इस धर्म के उपासक दक्षिण में लिंगायत या जंगम कहे जाते थे। 
  • बसव पुराण में इस संप्रदाय के प्रवर्तक अल्लभप्रभु एवं उनके शिष्य बसव का उल्लेख मिलता है।

कश्मीरी शैव संप्रदाय -

  • कश्मीरी शैव शुद्ध रूप से दार्शनिक तथा ज्ञानमार्गी था। 
  • इसमें कपालिकों के घृणित क्रियाकलापों की निंदा की गई है। 
  • वसुगुप्त इसके संस्थापक थे। शिव को उन्होंने अद्वैत माना है।

नाथ संप्रदाय -

  • 10 वीं शताब्दी में मत्स्येन्दनाथ ने शैव  धर्म पर आधारित नाथ संप्रदाय की स्थापना की। 
  • इसका गोरखनाथ ने व्यापक प्रचार-प्रसार किया।

नयनार -

  • दक्षिण भारत में शैव धर्म का प्रचार नयनार या आडियार संतों द्वारा किया गया। 
  • यह संख्या में 63 थे। 
  • इनके श्लोकों के संग्रह को तिरूमुडै कहा जाता है जिसका संकलन नम्बि- अण्डला-  नम्बि ने किया।
धन्यवाद ।

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