छत्रपति शिवाजी का शासन- प्रबन्ध

शिवाजी के शासन प्रबंध में उनकी मौलिक प्रतिभा का प्रमाण प्राप्त होता है। वह एक विजेता एवं सैनिक प्रतिभा संपन्न ही नहीं थे बल्कि वह कुशल संगठनकर्ता तथा प्रशासक भी थे।उनके प्रशासन का क्रमिक विकास अनुभव के आधार पर हुआ था।

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शासन प्रबन्ध की विशेषतायें -

शासन में नियुक्तियां योग्यता के आधार पर होती थी। पद वंशानुगत नहीं थे एवं जागीर प्रथा नहीं थी। कर्मचारियों को नगद वेतन दिया जाता था। राजस्व क्षेत्र में रैयतवाड़ी प्रणाली लागू की गई थी। करों का भार कम था। प्रशासन की इकाई दुर्ग थे जिनका जाल बिछा हुआ था। केवल धार्मिक उद्देश्य को छोड़कर भूमि का अनुदान नहीं दिया जाता था।

प्रशासनिक इकाइयां -

शिवाजी के राज्य को स्वराज कहा जाता था। यह महाराष्ट्र में ही सीमित था। जिन मुगल क्षेत्रों पर मराठों का वास्तविक आधिपत्य था, उन्हें मुगलाई कहा जाता था। स्वराज के नीचे संभाग था। संभाग प्रांतों (जिलों) में विभाजित थे। प्रांत का अधिकारी सूबा कहलाता था। प्रान्त महालों में बँटे हुए थे।महाल में कई ग्राम होते थे।

दुर्ग -

प्रशासनिक व्यवस्था का मुख्य आधार दुर्ग थे। राज्य की सुरक्षा दुर्गों पर ही निर्भर करती थी। उनके राज्य में लगभग 280 दुर्ग थे। किलो में रसद सामग्री तथा सैनिकों के बारे में कठोर नियम थे।

अष्टप्रधान -

प्रशासन में सहयोग देने के लिए आठ मंत्री थे जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था। छत्रपति उनके परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं थे। उनकी स्थिति केवल परामर्शदाता की थी।

पेशवा -

वह मुख्य प्रधान भी कहा जाता था। छत्रपति के बाद वह प्रशासन का प्रमुख था।

सेनापति या सर-ए- नौबत -

वह सैनिक प्रशासन का प्रमुख था। वह युद्ध में सेना का संचालन करता था।

अमात्य या मजमुआदार -

वह राजस्व विभाग का प्रमुख था और आय व्यय का लेखा रखता था।

सचिव या सुरनीस -

वह पत्र-व्यवहार विभाग का प्रमुख था।

मंत्री या वाकनवीस -

वह दरबार और छत्रपति के प्रतिदिन के कार्यों को लिपिबद्ध करता था।

सुमंत या दबीर -

वह परराष्ट्र मंत्री के रूप में कार्य करता था। वह गुप्तचर विभाग का प्रमुख भी था।

पंडितराव -

वह धर्म विभाग का प्रमुख था और दान आदि कार्यों को देखता था।

न्यायाधीश -

वह न्याय विभाग का अध्यक्ष था और मुकदमों की सुनवाई भी करता था।
सेनापति और मंत्री को छोड़कर अन्य मंत्री ब्राह्मण होते थे। पंडितराव और न्यायाधीश को छोड़कर अन्य सभी मंत्रियों को सैन्य संचालन भी करना पड़ता था।

कारभारी और मुत्तलिक -

अष्टप्रधान के मंत्रियों के नायब भी होते थे। उन्हें कारभारी कहा जाता था। अगर उन्हें विशेष अधिकार प्रदान किए जाते थे, तो उन्हें मुत्तलिक कहते थे।

सैनिक प्रशासन -

शिवाजी सैनिकों की नियुक्ति स्वयं करते थे। सैनिकों को योग्यता के अनुसार वेतन दिया जाता था। सेना के दो भाग थे-सवार तथा पैदल। सवार सेना के दो भाग थे- प्रथम, पागा या बारगीर अश्वारोही सैनिक जिन्हें घोड़े राज्य की ओर से दिए जाते थे। द्वितीय, सिलहदार सवार जो अपने घोड़े तथा अस्त्र-शस्त्र स्वयं लाते थे। पैदल सैनिकों को पाइक कहते थे। शिवाजी के अंगरक्षकों की टुकड़ी पृथक थी। पैदल कारभारी सैनिक तथा सिलहदार कृषि कार्य करते थे। कृषि कार्य समाप्त होने पर वह मुल्कगीरी के लिए सेना में सम्मिलित हो जाते थे।

राजस्व नीति -

राज्य के अधिकारियों को नगद वेतन दिया जाता था। किसानों से भूराजस्व राजा सीधे लेता था। उत्पत्ति के आधार पर लगान निश्चित किया गया था, जो उत्पादन का 2/5 होता था।प्राकृतिक आपदा के समय किसानों को तकावी दी जाती थी। कृषक नगद या अनाज में लगान दे सकता था।
राज्य को चौथ और सरदेशमुखी से भी आए होती थी। मुगल क्षेत्रों से शिवाजी राजस्व का 1/4 भाग की मांग करते थे, इसे चौथ कहा जाता था। यह सैनिकों के व्यय के लिए थी। सरदेशमुखी भी चौथ के साथ वसूल की जाती थी। यह राजस्व का एक 1/10 भाग था। शिवाजी स्वयं को सरदेशमुख मानते थे। चौथ तथा सरदेशमुखी के बदले मराठे उस क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करते थे।

समुद्री किले और नौसेना -

शिवाजी ने समुद्री किलों का निर्माण कराया था। इनकी रक्षा तथा तटों की पहरेदारी के लिए उन्होंने नौसेना का भी गठन किया था। उनके बेड़े में 700 जहाज थे, जो दो भागों में विभाजित थे। एक का अधिकारी दरिया सारंग था, दूसरे का अधिकारी मायनायक कहा जाता था।

धार्मिक सहिष्णुता -

शिवाजी हिंदू धर्म के रक्षक तथा उद्धारक थे लेकिन उनके प्रशासन का आधार धार्मिक सहिष्णुता थी। उन्होंने मुसलमानों को भी सेना व प्रशासन में स्थान दिया था।

राज्य का स्वरूप -

मराठा राज्य राजतंत्र था। इसे निरंकुश या स्वेच्छाचारी नहीं कहा जा सकता। राज्य को निरंतर युद्ध की स्थिति में रहना पड़ता था। इसलिए शिवाजी के नियम स्पष्ट और कठोर थे, जिससे अधिकारियों में स्वावलंबन की भावना उत्पन्न हो।
धन्यवाद ।

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