नूरजहाँ

नूरजहाँ का वास्तविक नाम मेहरून्निसा था। उसका पिता मिर्जा ग्यासबेग ईरान के एक प्रभावशाली वंश का था। अकबर ने मिर्जा ग्यासबेग को एक साधारण पद पर नियुक्त कर दिया था। धीरे-धीरे अपनी योग्यता तथा परिश्रम से ग्यासबेग काबुल का दीवान नियुक्त हो गया। 1594 ई० में मेहरून्निसा का विवाह अलीकुली इस्तजलू के साथ कर दिया गया। अलीकुली की मृत्यु के पश्चात जहाँगीर ने विधवा मेहरून्निसा और उसकी पुत्री लाडली बेगम को आगरा बुलाकर अकबर की विधवा सलीमा बेगम की सेवा में रख दिया। 1611 ई० में जहाँगीर ने मेहरून्निसा से विवाह कर नूरजहाँ (संसार का प्रकाश) की उपाधि दी।

Nurjahan
Nurjahan tomb

जहाँगीर से विवाह के समय नूरजहाँ की आयु 35 वर्ष थी। वह असाधारण रूप से सुन्दर, शिक्षित और सुसंस्कृत थी। उसमें गहन राजनीतिक तथा प्रशासनिक सम्सयाओं को समझने की सहज बुद्धि थी। नूरजहाँ के व्यक्तित्व और जहाँगीर के प्रति उसकी निकटता तथा प्रभाव का यह स्वाभाविक परिणाम था कि प्रशासनिक मामलों में भी वह सम्राट का हाथ बँटाती थी। धीरे-धीरे ऐसा प्रतीत होने लगा कि प्रशासन की सम्पूर्ण सत्ता नूरजहाँ के हाथों में चली गई थी। 

नूरजहाँ के सभी सम्बन्धियों को धन-दौलत व इज्जत दी गई। किसी भी महिला को जमीन तभी दी जा सकती थी जब कागज पर नूरजहाँ की मोहर लग जाए। सम्राट ने उसे प्रभुसत्ता और शासन का भी अधिकार दे दिया था। कभी-कभी वह सम्राट के समान झरोखा दर्शन देती थी। ऐसे सभी फरमान जिन पर सम्राट के हस्ताक्षर आवश्यक होते थे, नूरजहाँ बेगम का नाम भी साथ-साथ लिखा जाता था। नूरजहाँ की प्रभुसत्ता इस सीमा तक पहुँच गई थी कि सम्राट केवल नाम का सम्राट रह गया था।

गुट का निर्माण –

दरबार में नूरजहाँ ने एक गुट का निर्माण किया। इस गुट में नूरजहाँ के पिता एतमादुद्दौला, माता अस्मत बेगम, भाई आसफ खाँ और इब्राहिम खाँ थे। जब आसफ खाँ की पुत्री अर्जुमन्द बानू का विवाह जहाँगीर के पुत्र खुर्रम के साथ हुआ, तब इस गुट का उद्देश्य खुर्रम का समर्थन करना था। इस गुट का प्रभाव जहाँगीर के शासनकाल में बना रहा। डॉ बेनी प्रसाद ने नूरजहाँ के प्रभाव को दो कालों में बाँटा है। 

प्रथम काल (सन् 1611 ई०-1622 ई०) –

इस काल में नूरजहाँ ने अपने गुट को शक्तिशाली बनाने के लिए अपने समर्थकों को ऊँचे पद दिलाये और अपने विरोधियों को दुर्बल किया। इससे दरबार में दो दल बन गए। एक दल नूरजहाँ का समर्थकथा और दूसरा दल खुसरो का समर्थक था। नूरजहाँ के समर्थकों को ऊँचे मनसब प्रदान किए गए। इस गुट ने शहजादा खुर्रम को समर्थन देकर गौरव और समृद्घि के सर्वोत्कृष्ट शिखर पर पहुँचा दिया। खुसरो के विरुद्ध उसी को वली अहद बनाने का प्रयास हो रहा था।

द्वितीय काल (सन् 1622 ई०-1627 ई०) –

1621 ई० में जहाँगीर बीमार हो गया। खुर्रम आगरा में रहकर सम्राट की अस्वस्थता के कारण प्रशासन अपने हाथों में लेना चाहता था। नूरजहाँ और उसके मध्य संदेह बढ़ रहा था क्योंकि नूरजहाँ की पुत्री लाडली बेगम का विवाह शहरयार के साथ हो गया। खुर्रम समझने लगा कि नूरजहाँ शहरयार को बढ़ाने और उसे मिटाने के लिए कार्य कर रही है। अतः खुर्रम ने विद्रोह कर दिया। नूरजहाँ ने चतुरतापूर्वक महाबत खाँ को परवेज के साथ विद्रोह को समाप्त करने के लिए दक्षिण भेजा। महाबत खाँ ने कुशलता पूर्वक शाहजहाँ के विद्रोह को कुचल दिया। परिणामस्वरूप शाहजहाँ को अपने दो पुत्र दारा और औरंगजेब दरबार में जमानत के रूप में भेजने पड़े। आसफ खाँ चिन्तित था। उसने माबत खाँ के विरुद्ध नूरजहाँ के मन में संदेह उत्पन्न कर दिया। महाबत खाँ ने विद्रोह कर दिया लेकिन उसका उद्देश्य केवल सम्राट को अपने नियन्त्रण में रखना था जिससे नूरजहाँ उसके विरुद्ध कोई कार्य न कर सके। वह राजनीतिक दाँव-पेंच नहीं समझ सका जिन्हें उस समय आसफ खाँ संचालित कर रहा था। अतः उसे असफल हो भागना पड़ा।

1622 ई० से 1627 ई० तक नूरजहाँ आसफ खाँ की कुटिलता समझने में असमर्थ रही। 1627 ई० में जहाँगीर की मृत्यु होते ही आसफ खाँ ने खुसरो के पुत्र दावरबख्स को नाममात्र का सम्राट बनाकर शाहजहाँ को शीघ्र आगरा पहुँचने के लिए लिखा। शहरयार को युद्ध में पराजित कर मार दिया गया।  वास्तव में, नूरजहाँ की प्रतिष्ठा तथा शक्ति का आधार सम्राट था। जहाँगीर के मरते ही उसकी शक्ति का सारा भवन धराशायी हो गया।

नूरजहाँ की मृत्यु –

शाहजहाँ ने कृपा करके उसे पेंशन प्रदान की। नूरजहाँ और उसकी पुत्री लाडली बेगम ने अपना शेष जीवन विधवा के रूप में लाहौर में बिताया जहाँ जहाँगीर को दफन किया गया था। 1645 ई० में नूरजहाँ का देहान्त हुआ और उसे जहाँगीर की कब्र के पास रावी नदी के तट पर दफन कर दिया गया।

नूरजहाँ का मूल्यांकन –

नूरजहाँ का व्यक्तित्व प्रभावशाली था और जहाँगीर के शासनकाल में वह सम्राट की प्रमुख परामर्शदात्री थी। इसलिए मुगलकालीन इतिहास में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। राजनीति, प्रशासन, साहित्य के अतिरिक्त उसे वैभव प्रदर्शन में भी रूचि थी। उसकी इस रूचि से मुगल दरबार में वैभव प्रदर्शन में भी वृद्धि हुई। जहाँगीर के प्रति उसकी निष्ठा और प्रेम अद्वितीय था लेकिन उसके चरित्र में अवगुण भी थे। वह ईर्ष्यालु थी और किसी को अधिक शक्तिशाली होते सहन नहीं कर सकती थी। नूरजहाँ की असफलता का मुख्य कारण आसफ खाँ की कुटिलता को कभी समझने का प्रयास न करना तथा शहरयार जैसे व्यक्ति को समर्थन देकर बढ़ाना था।


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