मौर्यकालीन कर व्यवस्था 

मौर्यकालीन कर व्यवस्था की विस्तृत जानकारी हमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र से प्राप्त होती है। उसके अनुसार देश और काल को ध्यान में रखकर ही लोगों पर कर लगाने चाहिए, क्योंकि वह भली-भांति जानता था कि राज्य को कर तभी मिल सकता है जब प्रजा पर्याप्त उत्पादन करे। उसके अनुसार राजा को प्रजा से उतना ही कर लेना चाहिए जितना वह सरलता से दे सके। 

Mauryan tax system
Mauryan tax system 

कौटिल्य के अनुसार राजा को सामान्यतः प्रजा से उपज का छठा भाग ही कर के रूप में लेना चाहिए। परन्तु आपातकाल में वह उपज का 1/3 या 1/4 भाग भी कर के रूप में ले सकता था। अर्थशास्त्र में उल्लेख मिलता है कि गोप को गांव की भूमि को तीन भागों में बाँटना चाहिए और उसके आधार पर अलग-अलग भू-राजस्व का निर्धारण करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि भू-राजस्व भूमि की गुणवत्ता के आधार पर लिया जाता था। कुछ विशेष परिस्थितियों में राजा भू-राजस्व में छूट भी दे देता जैसा कि लुम्बिनी वन के निवासियों पर गौतम बुद्ध का जन्म स्थान होने के कारण अशोक ने भू-राजस्व कम करके उपज का 1/8 भाग कर दिया था। दुर्भिक्ष पड़ने की स्थिति में राजा भू-राजस्व वसूल नहीं करता था।

सामान्यतः कौटिल्य ने राज्य की आय को दो भागों में विभाजित किया है- 1.आय शरीर 2. आय मुख

आय शरीर 

आय शरीर के अन्तर्गत दुर्ग, राष्ट्र, खनि, सेतु, वन, व्रज और वणिक पथ आते हैं। जबकि मूल, भाग, व्याजि, परिध, क्लिप्त, रूपिक और  प्रत्यय आय मुख से सम्बन्धित हैं। इनका संक्षेप में वर्णन निम्न प्रकार से हैं –

  1. दुर्ग- विभिन्न नगरों से प्राप्त होने वाली विविध आय को दुर्ग कहा जाता था। इस प्रकार की आय निम्न साधनों से प्राप्त होती थीं –1. शुल्क – चुंगी, 2. पौतव – तौल और माप के साधनों को प्रमाणित करने से प्राप्त होने वाली आय, 3. दण्ड – जुर्माना, 4. नागरक – कारागरों से प्राप्त होने वाली आर, 5. लक्षणाध्यक्ष – मुद्रा पद्धति से प्राप्त होने वाली आय, 6. मुद्रा – नगर प्रवेश के समय मुद्रा  (सरकारी पास) लेने से होने वाली आय 7. सुरा – शराब के ठेकों से प्राप्त आय, 8. सूना- बूचड़खाने से प्राप्त आय, 9. सूत्र -  राज्य की ओर से सूत कातने आदि के जो काम कराये जाते थे उनसे प्राप्त आय, 10. तैल – तेल के व्यवसायियों से प्राप्त होने वाली आय, 11. धृत – घी के व्यवसाय से प्राप्त होने वाली आय, 12. नमक – नमक उत्पादन करने वालों से प्राप्त होने वाली आय, 13. सौवर्णिक – सुनारों से प्राप्त आय, 14. पण्यसंस्था – राजकीय पण्य की बिक्री से प्राप्त होने वाली आय,  15 . वेश्या – वेश्याओं से प्राप्त आय, 16. द्यूत – जुएँ से प्राप्त होने वाली आय, 17. वास्तुक – जायदाद की बिक्री के समय लिया जाने वाला कर, 18. कारीगरों तथा शिल्पियों की श्रेणियों से प्राप्त होने वाली आय, 19. देवताध्यक्ष -  मन्दिरों से प्राप्त होने वाली आय,  20. द्वार – नगर के प्रधान द्वार से जाने-आने वाले माल पर लिया जाने वाला कर, 21. वाहिरकादेय – अत्यन्त धनी लोगों से लिया जाने वाला अतिरिक्त कर।
  2. राष्ट्र – जनपदों से प्राप्त होने वाली आय को राष्ट्र कहा जाता था। जो निम्न साधनों से प्राप्त होती थी – 1. सीता – राजकीय भूमि से प्राप्त होने वाली आय सीता कहलाती थी। इसे वसूल करने का कार्य सीताध्यक्ष नामक अधिकारी का था। 2. भाग – राजकीय कृषि क्षेत्रों के अलावा अन्य भूमियों से प्राप्त कर भाग कहलाता था। इसकी दर भूमि के अनुसार निश्चित की जाती थी। 3. बलि – तीर्थस्थान आदि धार्मिक स्थानों पर लगा हुआ विशेष कर, 4. कर – सामन्तों द्वारा दिया जाने वाला भाग कर कहलाता था। प्रत्येक सामन्त को अपने राजा को वार्षिक कर देना पड़ता था। 5. वणिक – देहात के व्यापार या व्यवसाय पर लिया जाने वाला कर. 6. नदीपाल- नदियों पर बने हुए पुलों पर लिया जाने वाला कर, 7. नाव – नौका से नदी पार करने पर लिया जाने वाला कर। 8. पट्टन – कस्बों पर कर, 9. विवीत- चरागाहों पर कर, 10. वर्तनी – सड़कों पर कर, 11. चोररज्जु – चोरों की गिरफ्तारी से प्राप्त होने वाली आय।
  3. खनि – मौर्यकाल में स्थलीय तथा सामुद्रिक दोनों प्रकार की खानों पर राज्य का एकाधिकार था। इससे प्राप्त होने वाले सोना, चांदी, हीरा, मणि, मुक्ता, शंख, लोहा, नमक तथा अनेक प्रकार के कीमती पत्थरों से राज्य को बहुत आय होती थी।
  4. सेतु – पुष्पों और फूलों के उद्यान, शाक के खेत और मूलों (मूली, शलगम, कन्द आदि) के खेतों से जो आय होती थी उसे सेतु कहते थे।
  5. वन – वनों पर इस काल में राज्य का एकाधिकार था। इनसे राज्य को अनेक प्रकार की आय होती थी।
  6. व्रज – गाय, घोड़ा, भैंस तथा बकरी आदि पशुओं और विशाल चरागाहों से प्राप्त होने वाली आय को व्रज कहते थे। इस काल में राज्य की अपनी पशुशालाएँ भी होती थीं।
  7. वणिक पथ – वणिक पथ दो प्रकार के होते थे – स्थल पथ और  जल पथ। इनसे प्राप्त होने वाली आय वणिक पथ कहलाती थी।

आय मुख 

1. मूल – राज्य द्वारा चलाए गए उद्योगों के उत्पादनों की बिक्री से प्राप्त आय

2. भाग – व्यापारियों द्वारा संचालित व्यापार से प्राप्त निर्धारित अंश भाग कहलाता था।

3. व्याजि – राज्य जिन सामानों को खरीदता था, उसकी मात्रा कीमत के हिसाब से सामान्य लोगों की अपेक्षा कुछ अधिक होती थी। इस लाभांश को व्याज कहते थे।

4. परिध – यह एक प्रकार का विशिष्ट कर था।

5. क्लिप्त – नदी-तट, समुद्र तथा झीलों के किनारे बसे ग्रामवासियों से लिया जाने वाला कर।

6. रूपिक – इसका सम्बन्ध प्रजा द्वारा राजकोष में संचय की जाने वाली धनराशि से था। इसके हेतु प्रजा को कुछ शुल्क देना पड़ता था।

7. अत्यय – राज्य द्वारा निर्धारित स्थानों के अतिरिक्त अन्य स्थानों से सामान खरीदने वाले को यह अर्थदण्ड देना पड़ता था।

इसके अतिरिक्त कौटिल्य अर्थशास्त्र में राज्य की आय के अन्य साधनों का भी उल्लेख मिलता है। इस समय न्यायालय राजकीय आय के एक महत्वपूर्ण स्रोत थे। किसी उत्सव के समय प्रजा जो भेंट राजा को देती थी, उसे कौटिल्य ने उत्संग कहा है। कभी-कभी पूरे गाँव पर एक साथ कर लगा दिया जाता था। इस प्रकार के कर को कौटिल्य ने पिण्डकर कहा है। इस काल में राजा भूमि कर के साथ-साथ जल-कर भी वसूल करता था, जिसे उदक भाग कहा जाता था। कौटिल्य के अनुसार नदी, सरोवर और कुएँ से सिंचाई करने वाला कृषक राजा को उपज का पाँचवाँ भाग, अपने कन्धे पर जल ले जाने वाला उपज का चौथा भाग तथा राजकीय नहर से सिंचाई करने वाला उपज का तीसरा भाग देता था। आवश्यकता पड़ने पर युद्ध और अकाल आदि के समय नये कर भी लगाये जाते थे। प्रणय एक आपातकालीन कर था। जब राज्य को अतिरिक्त धन की आवश्यकता होती थी तो वह साधारण करों के अतिरिक्त प्रजा को कुछ अधिक धन देने के लिए बाध्य करता था। इस धन को ही प्रणय कहा गया है। आपातकाल के समय धनी लोगों से आकस्मिक धन एकत्र किया जाता था और ऐसे लोगों को राज्य सभा में उच्च पद, छत्र, पगड़ी तथा अन्य कई विभूषण दिये जाते थे। मन्दिरों और धार्मिक संस्थाओं से भी ऐसे अवसरों पर उपहार और दान लिए जाते थे।

धन्यवाद 



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