बलबन का राजत्व का सिद्धान्त
बलबन का राज्यारोहण 1265 ई. में हुआ। जिस समय बलबन सिंहासन पर बैठा सुल्तान पद की प्रतिष्ठा पूर्ण रूप से नष्ट हो चुकी थी। सल्तनत को शक्तिशाली बनाने के लिए सुल्तान पद की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को स्थापित करना तथा दृढ़ केन्द्रीय शासन स्थापित करना आवश्यक था। सुल्तान की शक्ति की पुनर्स्थापना से ही आन्तरिक और बाह्य संकटों से बचा जा सकता था। अतः बलबन ने ताज की शक्ति और प्रतिष्ठा को पुनःस्थापित करने का निर्णय किया जिससे राज्य के अधिकारियों तथा सामान्य प्रजा में उसकी शक्ति का आतंक स्थापित हो सके। यह कठिन कार्य था क्योंकि अमीर वर्ग स्वतन्त्रता के उपभोग का अभ्यस्त हो गया था।
Balban's tomb |
दैवीय सिद्धान्त
बलबन दिल्ली सल्तनत का एकमात्र सुल्तान था जिसने स्पष्ट और दृढ़ शब्दों में राजत्व सम्बन्धी विचारों को प्रकट किया था। उसने राजा के दैवीय सिद्धान्त की स्थापना की और इसके द्वारा उसने अमीरों को यह स्पष्ट कर दिया कि उसने सिंहासन को हत्या या षड्यंत्र के द्वारा प्राप्त नहीं किया था बल्कि दैवीय कृपा से प्राप्त किया था। बलबन की धारणा थी कि सुल्तान का हृदय ईश्वर की कीर्ति को प्रतिबिम्बित करता है और सुल्तान ईश्वर का प्रतिनिधि है।
निरंकुश सत्ता का सिद्धान्त
बलबन ने सुल्तान की निरंकुश सत्ता पर जोर दिया। उसने कहा कि सुल्तान पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है और प्रतिष्ठा में पैगम्बर के बाद उसका स्थान है, इसलिए उसके कार्यों पर अमीर या प्रजा कोई आपत्ति नहीं कर सकते थे। जनता में उसकी निरंकुश सत्ता से भय, आदर और आज्ञाकारिता की भावना उत्पन्न होती है।
प्रजावत्सलता
बलबन ने सुल्तान के कर्तव्यों पर भी जोर दिया जिससे ज्ञात होता है कि वह प्रजा के कल्याण के प्रति जागरूक था। उसका कहना था कि सुल्तान पद के कर्तव्यों का गम्भीरता से पालन करना चाहिए। उसका जीवन ऐसा हो जिसकी सब प्रशंसा करें। उसके शब्द, कार्य, आदेश उसकी प्रजा को भी शरीयत के अनुसार चलने की प्रेरणा दें।
उच्च कुलीन धारणा
बलबन के राजत्व सिद्धान्त में दैवीय स्वरूप तथा निरंकुशता के साथ उच्च कुलीन वंश की धारणा भी थी। अन्य तुर्क अमीरों से स्वयं को पृथक तथा उच्च दिखाने के लिए उसने अपने को पौराणिक तूरानी वीर अफरासियाब का वंशज घोषित किया। इस कुलीन धारणा से वह अपने वंश को अत्यन्त प्रतिष्ठित और श्रेष्ठ स्थापित करना चाहता था।
शक्ति का प्रदर्शन
इन अवधारणाओं के अतिरिक्त बलबन सुल्तान पद की शक्ति और वैभव को प्रकट करना भी आवश्यक समझता था जिससे उसके दैवीय स्वरूप और निरंकुश शक्ति का बाह्य रूप से प्रदर्शन किया जा सके। इस प्रकार का प्रदर्शन राजशक्ति के प्रति आदर और भय उत्पन्न करता था। इसके लिए उसके व्यवहार में अत्यन्त गम्भीरता आ गई। उसने लम्बे और भयानक लोगों को अपना अंगरक्षक नियुक्त किया। दरबार में सुल्तान का अभिवादन करने के लिए सिजदा और पैबोस का नियम लागू किया। उसने दरबार में मद्यपान को निषेध कर दिया। दरबार में हँसने या मुस्कुराने पर प्रतिबंध लगा दिया। बलबन स्वयं सार्वजनिक स्थानों में इन नियमों का कठोरता से पालन करता था।दरबार में वैभव प्रदर्शन के लिए ईरानी नौरोज उत्सव को अपनाया। जब वह महल के बाहर जाता तो उसके भयंकर अंगरक्षक नंगी तलवारें लेकर बिस्मिल्लाह, बिस्मिल्लाह चिल्लाते हुए चलते थे। इसमें संदेह नहीं कि बलबन के इन उपायों से सुल्तान पद की प्रतिष्ठा स्थापित हुई और उसका व्यक्तित्व प्रभावी तथा शक्तिशाली बना।
बलबन ने सम्पूर्ण शासनकाल में साधारण व्यक्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं रखा। उसका उद्देश्य राजपद को महान बनाना था। उसने राजपद को ऐसी संस्था का रूप दिया, जिसका जनता से सम्पर्क नहीं होना चाहिए। वह राजा और जनता की निकटता नहीं चाहता था क्योंकि निकटता से राजपद का असम्मान होगा और वह दुर्बल होगा क्योंकि अन्य लोग भी राजपद की आकांक्षा करेंगे। राजा और प्रजा के अन्तर में ही राजपद की सुरक्षा थी।वास्तव में, बलबन का राजत्व सिद्धान्त फारस के राजत्व से प्रेरित था।
धन्यवाद।
एक टिप्पणी भेजें