गुप्तकाल – स्वर्णयुग

भारतीय इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्णयुग के नाम से सम्बोधित किया गया है। गुप्तवंश भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। मौर्य वंश के पतन के पश्चात राजनैतिक एकता को पुनर्स्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को जाता है। गुप्तकाल में भारतीय संस्कृति का बहुमुखी विकास हुआ। भारतीय इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्ण युग कहे जाने के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं –

Gupta Empire
Gupta Empire 

महान सम्राटों का युग –

गुप्तकाल में चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त तथा स्कन्दगुप्त आदि ऐसे महान सम्राट हुए, जिन्होंने अपने सैनिक पराक्रम, रणकौशल तथा कूटनीति के बल पर उत्तरी एवं दक्षिणी भारत के अनेक शासकों को पराजित कर उन्हें अपने अधीन किया। समुद्रगुप्त को इतिहासकारों ने सौ युद्धों का विजेता कहा है। गुप्त सम्राटों के शासनकाल में भारत की भूमि पर विदेशी शक्ति को बढ़ने का अवसर नहीं मिला एवं भारत इस काल में सदैव स्वतन्त्र रहा। प्रशासन की दृष्टि से गुप्त सम्राट कुशल एवं सफल राजनीतिज्ञ तथा प्रजा हितकारी थे।

राजनीतिक एकता का युग –

मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत में शक, पह्लव, इण्डो-यूनानी तथा कुषाण जातियों ने भारत को अपना प्रभुत्व क्षेत्र बना लिया था। इसके साथ ही यहाँ अनेक छोटे-छोटे राज्य भी थे। किन्तु गुप्तकालीन सम्राटों ने इन विदेशी आक्रमणकारियों तथा छोटे-छोटे देशी राज्यों की प्रभुसत्ता को समाप्त करके भारत में एक संयुक्त एवं सशक्त शासन प्रणाली की व्यवस्था की, जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत में राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ। गुप्त राजाओं ने दिग्विजय की नीति अपनाकर भारत में एकछत्र व सार्वभौमिक सत्ता की स्थापना की तथा भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बाँध दिया।

श्रेष्ठ शासन व्यवस्था का युग –

गुप्त सम्राटों की शासन व्यवस्था सुदृढ़ तथा सुसंगठित थी। उन्होंने नागरिक तथा सैनिक सेवाओं का पुनर्गठन किया। वास्तव में, गुप्त शासकों की इस स्वतन्त्रता तथा समानता के सिद्धांतों पर आधारित शासन व्यवस्था में न्याय का स्वरूप निष्पक्ष था। यातायात के साधनों की उचित व्यवस्था करके गुप्त सम्राटों ने व्यापार को बहुत प्रोत्साहन दिया। इस काल में सार्वजनिक तथा जनहितकारी कार्यों को प्रोत्साहन दिया गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि प्रजा सर्व सुख सम्पन्न एवं समृद्ध रही। 

सामाजिक उपलब्धियों का युग –

गुप्तकाल में प्रजा की सामाजिक समस्याओं का निराकरण उदारतापूर्वक किया गया था। वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो गुप्तकाल ब्राह्मणवाद के पुनरूत्थान का युग था। इस समय तक ब्राह्मण वर्ग इस बात से भली-भाँति परिचित हो गया था कि अब तक चले आ रहे हिन्दू धर्म के दोषों एवं असंगतियों का निराकरण करके ही सामाजिक व्यवस्था को स्थापित किया जा सकता है। अतः अब उन्होंने प्राचीन मान्यताओं तथा नवीन आवश्यकताओं का समन्वय करके समाज को एक नवीन दिशा प्रदान की। इस काल में सामाजिक प्रतिबन्धों के मध्य सामंजस्य स्थापित करके सम्प्रदायों, वर्गों तथा वर्णों की प्रगति के लिए एक उचित मार्ग का पथ-प्रदर्शन किया गया।

धार्मिक सहिष्णुता का युग –

गुप्तकाल में धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। इस काल में धर्म के नाम पर कोई हिंसा नहीं हुई। गुप्त सम्राटों ने साम्राज्य की शान्ति, सुरक्षा व प्रगति के लिए धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाया। यद्यपि सभी गुप्त सम्राट वैष्णव धर्म में विश्वास करते थे किन्तु उन्होंने सभी धर्मों का समान रूप से आदर किया। इस काल में हिन्दू धर्म के साथ-साथ बौद्ध तथा जैन धर्म का भी विकास हुआ। हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ-साथ अन्य धर्मों की उपास्य विभूतियों की मूर्तियों का भी निर्माण हुआ। धार्मिक सहिष्णुता, उदारता तथा सदाशयता के कारण गुप्तकाल को स्वर्णयुग कहा जाता है।

सांस्कृतिक एकता का युग –

गुप्त सम्राट आर्य संस्कृति के पोषक थे। आर्य संस्कृति के मूल तीन तत्वों- देश, धर्म तथा भाषा की एकता ने इस काल की संस्कृति को एकता प्रदान की। इस काल में संस्कृत को भारत की राजभाषा घोषित किया गया। इस भाषागत एकता के कारण ही सांस्कृतिक एकता को बल मिला तथा उपनिवेश स्थापना के कार्यों को प्रोत्साहन मिला जिसका परिणाम यह हुआ कि जावा, सुमात्रा, बाली एवं चीन में भारतीय संस्कृति का प्रवेश हुआ।

आर्थिक समृद्धि का युग –

गुप्तकाल में राजनीतिक एकता के उपरान्त भारत में व्यापारिक मार्गों का विकास हुआ,  जिसके कारण आन्तरिक व्यापार के साथ-साथ विदेशी व्यापार में भी वृद्धि हुई। गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्रायें इस बात को सिद्ध करती हैं कि गुप्तकाल की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी तथा प्रजा सुख सम्पन्न थी। इस काल में आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उत्पादन होता था। अतः इन परिस्थितियों में बहुत से गृह उद्योगों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों आदि का जन्म हुआ। गुप्तकालीन आर्थिक समृद्धि स्वर्ण युगीन थी।

साहित्य के उत्कर्ष का युग –

गुप्तकाल में साहित्य का बहुत अधिक विकास हुआ। अनेक गुप्त सम्राट स्वयं विद्वान एवं लेखक थे। समुद्रगुप्त काव्य एवं संगीत प्रेमी था। उसका दरबारी कवि हरिषेण उच्च कोटि का विद्वान था। उसका प्रयाग प्रशस्ति लेख संस्कृत भाषा में एक प्रशंसनीय रचना है। चन्द्रगुप्त द्वितीय का मन्त्री वीरसेन भी उच्च कोटि का विद्वान था। वसुबन्धु एवं दिंगनाग इस काल के सुविख्यात बौद्ध विद्वान थे जो संस्कृत में ही लिखा करते थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय का दरबार नौ प्रकाण्ड विद्वानों से सुशोभित था। जो नवरत्न के नाम से विख्यात थे। कालिदास का नाम इनमें सर्वोपरि है। गुप्तकाल में धार्मिक विषय, विधि, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण, गणित, विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र तथा नाटक आदि की रचनायें की गईं।

वैज्ञानिक उन्नति का युग –

ज्योतिष, गणित, चिकित्सा सम्बन्धी कई ग्रन्थों का सृजन इसी काल में हुआ। धन्वन्तरि इस काल के प्रसिद्ध आयुर्वेदशास्त्री थे। रेखागणित का अभ्यास इस काल में होता था। दशमलव एवं भिन्न की खोज भी इसी काल में हुई। आर्यभट्ट ने आर्यभट्टीयम नामक ग्रन्थ की रचना इसी काल में की थी, जिसमें अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित तीनों का वर्णन किया गया है। आर्यभट्ट ने इस बात को सिद्ध किया कि चन्द्रमा के सूर्य तथा पृथ्वी के बीच में आ जाने से ग्रहण लगता है। आर्यभट्ट ने इस तथ्य को भी सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है वराहमिहिर इस काल के दूसरे प्रतिष्ठित ज्योतिष थे।

कला के विकास का युग –

गुप्तकाल को ललित कलाओं का स्वर्ण युग माना जाता है। इस काल में भवन निर्माण कला, मूर्ति कला, चित्रकला, संगीत कला, नृत्य कला आदि के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई। जबलपुर का विष्णु मन्दिर, भीतरगांव का ईंटों का मन्दिर गुप्तकालीन भवन निर्माण कला के उत्कृष्ट उदाहरण माने जाते हैं। अजन्ता की अधिकांश गुफाओं का निर्माण भी इसी काल में हुआ। भवन निर्माण के साथ-साथ तक्षण कला के क्षेत्र में भी उन्नति हुई। अजन्ता की गुफाओं के भित्ति चित्र गुप्तकालीन कला के अद्भुत उदाहरण हैं। 

आर्य संस्कृति के प्रसार का युग –

गुप्तकाल वास्तव में आर्य संस्कृति के प्रसार का युग था। अतः इस काल में आर्य संस्कृति का प्रसार विदेशों में हुआ। लंका, वर्मा, इण्डोनेशिया, कम्बोडिया, चीन,  जापान आदि देशों में धर्म प्रचारकों एवं व्यापारियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति प्रसारित हुई। आज भी इन देशों में भारतीय संस्कृति के अवशेष मिलते हैं।

निष्कर्ष –

गुप्तकाल में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में अत्यन्त उन्नति हुई। ऐसी उन्नति न तो पहले हुई न कभी गुप्तकाल के बाद। भारत ने अपने इतिहास में कभी भी अपनी शक्ति को अनेक दिशाओं में इस प्रकार प्रफुल्लित होते नहीं देखा, जिस प्रकार गुप्त युग में देखा था। अतः निम्न आधार पर कह सकते हैं कि गुप्तकाल स्वर्ण युग था।


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