चन्द्रगुप्त द्वितीय 

चन्द्रगुप्त द्वितीय समुद्रगुप्त का छोटा पुत्र तथा रामगुप्त का भाई था। उसकी माता का नाम दत्तादेवी था। अपने पिता के समान चन्द्रगुप्त द्वितीय वीर, पराक्रमी, महान योद्धा तथा धर्मनिष्ठ शासक था। चन्द्रगुप्त द्वितीय इतिहास में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

Chandragupta II
Chandragupta II

चन्द्रगुप्त द्वितीय का राज्यारोहण –

समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र रामगुप्त सिंहासन पर बैठा। उसके शासक बनते ही शकों ने उसके साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। इस विकट परिस्थिति से भयभीत होकर रामगुप्त ने शकों से सन्धि कर ली तथा अपनी रानी ध्रुवदेवी को शकों को देना स्वीकार कर लिया। किन्तु समुद्रगुप्त के छोटे पुत्र चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त के इस कृत्य को अपने पूर्वजों का अपमान समझा तथा उसने अपने अन्य सैनिकों की सहायता से शकों को पराजित कर दिया। कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त ने अपने अग्रज रामगुप्त की हत्या करवाकर ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया तथा स्वयं सम्राट बन गया। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने 380 ई० से 413 ई० तक सफलतापूर्वक शासन किया।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियाँ –

वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा शक्ति में वृद्धि –

  • चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी सम्राट होने के कारण सर्वप्रथम वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी आन्तरिक स्थिति को सुदृढ़ किया। उसने अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए नागवंशीय कन्या कुबेरनागा से विवाह किया क्योंकि इस समय नागवंश भारत का एक गौरवशाली वंश था। कुबेरनागा से एक कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम प्रभावतीगुप्त रखा गया।
  • वाकाटक वंश की बढ़ती हुई शक्ति को देखते हुए वाकाटक नरेश रूद्रसेन से अपनी कन्या प्रभावती गुप्त का विवाह कर दिया।  390 ई० में रूद्रसेन की मृत्यु के पश्चात प्रभावयी ने चन्द्रगुप्त के संरक्षण एवं मार्गदर्शन में शासन का संचालन किया इसके परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय का वाकाटक राज्य पर भी प्रभाव बना रहा।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने पुत्र कुमारगुप्त का विवाह कुन्तल (वर्तमान कर्नाटक) में कदम्ब राजवंश के शासक काकुत्सवर्मन की पुत्री से किया था। इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय की ख्याति सुदूर दक्षिण में फैल गई।

चन्द्रगुप्त द्वितीय के विजय अभियान –

गणराज्यों पर विजय –

सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा की ओर अधिक ध्यान केन्द्रित किया। इस समय गुप्त साम्राज्य तथा विदेशी राज्यों के मध्य अनेक छोटे-छोटे गणराज्य थे। यद्यपि ये गणराज्य स्वतन्त्र थे तथापि इन राज्यों की शक्ति अत्यन्त क्षीण थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने इन गणराज्यों की दुर्बलता से भली-भाँति परिचित होकर इन गणराज्यों पर आक्रमण कर दिया तथा इन गणराज्यों को पराजित कर अपने साम्राज्य में मिला लिया।

शक क्षत्रपों पर विजय –

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने वाकाटकों के सहयोग से काठियावाड़-गुजरात के शक-महाक्षत्रपों पर आक्रमण कर उन्हें बुरी तरह पराजित किया एवं अपने प्रतिद्वंद्वी शक शासक रूद्रसिंह तृतीय को मारकर गुजरात एवं काठियावाड़ का राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया। शक विजय के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकारि तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

पूर्वी प्रदेशों पर विजय –

शक क्षत्रपों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पूर्वी प्रदेशों पर आक्रमण कर उन्हें विजित कर लिया क्योंकि यह प्रदेश साम्राज्य के लिए खतरा उत्पन्न हो सकते थे।

पश्चिम प्रदेशों पर अधिकार –

इस समय पश्चिम के प्रदेशों पर कुषाण वंश का शासन था। चन्द्रगुप्त द्वितीय कुषाणों की शक्ति को पूर्ण रूप से नष्ट करना चाहता था, अतः उसने इन प्रदेशों पर आक्रमण कर दिया। महरौली लौह स्तम्भ अभिलेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सिन्धु एवं उसकी समस्त सहायक नदियों को पारकर बाल्हीकों को पराजित किया तथा समस्त पंजाब व सीमान्त प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

बंगाल विजय –

मेहरौली के स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के एक सम्मिलित संघ को पराजित किया था। पश्चिमी बंगाल का बाँकुड़ा वाला क्षेत्र समुद्रगुप्त द्वारा जीता जा चुका था एवं उत्तर-पूर्वी बंगाल अब भी जीतने के लिए बचा था। अतः इस विजय से सम्पूर्ण वंग भूमि पर गुप्त सत्ता स्थापित हो गई एवं ताम्रलिप्ति जैसे समृद्ध बन्दरगाह पर गुप्तों का अधिकार हो गया  जिससे व्यापार-वाणिज्य में अत्यधिक उन्नति हुई।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की धार्मिक नीति -

चन्द्रगुप्त द्वितीय एक धर्मनिष्ठ वैष्णव था जिसने परमभागवत की उपाधि धारण की। मेहरौली लेख के अनुसार उसने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवायी थी। वह अन्य धर्मों के प्रति भी उदार था। उसने अन्य धर्मावलम्बियों को भी अपने शासन के उच्च पदों पर नियुक्त किया तथा दूसरे धर्मों को दान आदि दिया। उसका सन्धिविग्रहक (युद्ध तथा शान्ति का सर्वोच्च अधिकारी) सचिव वीरसेन शैव धर्म को मानता था जिसने भगवान शिव की पूजा के लिए उदयगिरि पहाड़ी पर एक गुफा का निर्माण कराया था। उसका सेनापति आम्रकार्दव बौद्ध धर्म को मानता था। सांची लेख के अनुसार उसने सांची महाविहार के आर्यसंघ को 25 दीनारें एवं ईश्वरवासक ग्राम प्रतिदिन पांच भिक्षुओं को भोजन कराने एवं रत्नगृह में दीपक जलाने के लिए दान में दिया था। 

चन्द्रगुप्त द्वितीय का कलाप्रेम –

चन्द्रगुप्त द्वितीय स्वयं विद्वान तथा विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके काल में पाटलिपुत्र तथा उज्जयिनी विद्या के प्रमुख केन्द्र थे। अनुश्रुति के अनुसार उसके दरबार में नौ विद्वानों की एक मण्डली रहती थी जिसे नवरत्न कहा जाता था। इसमें कालीदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट, घटकर्पर, वराहमिहिर तथा वररूचि जैसे विद्वान सम्मिलित थे। उसका संधिविग्रहिक वीरसेन व्याकरण, न्याय, मीमांसा एवं शब्द का प्रकाण्ड पण्डित एवं एक कवि था। राजशेखर ने अपने ग्रन्थ काव्यमीमांसा में इस बात का उल्लेख किया है कि उज्जयिनि में कवियों की परीक्षा लेने के लिए एक विद्वत्परिषद् थी। इस परिषद् ने कालिदास, भर्तृमेठ, भारवि, अमरूक, हरिश्चन्द्र एवं चन्द्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा ली थी। 

अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय एक कुशल शासक, महान विजेता, कूटनीतिज्ञ, विद्वान एवं विद्या का उदार संरक्षक था। उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी तथा उसके काल में गुप्त साम्राज्य का चर्तुदिक विस्तार हुआ। जिस साम्राज्य को उसके पिता समुद्रगुप्त ने निर्मित किया,  वह चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पूर्णतया संगठित, सुव्यवस्थित एवं प्रशासित होकर उन्नति के शिखर पर जा पहुँचा तथा प्राचीन भारत में स्वर्ण युग का दावेदार बन गया। निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की गणना न केवल गुप्तवंश के बल्कि सम्पूर्ण भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में होती है।


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