यूरोप में धर्म सुधार आंदोलन के कारण

 16वीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप के जर्मनी में विटेनबर्ग विश्वविद्यालय में धर्मविद्या के प्राध्यापक मार्टिन लूथर ने कैथोलिक चर्च में सुधार की मांग की। मूल रूप से धर्म सुधार आंदोलन का उद्देश्य कैथोलिक चर्च में सुधार करना था लेकिन इसमें राजाओं के समर्थन तथा नवोदित पूंजीगत वर्ग की आकांक्षाओं ने इसे राजनीतिक और आर्थिक स्वरूप दे दिया जिससे चर्च का विघटन अवश्यंभावी हो गया।

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धार्मिक कारण

पोप का अनैतिक तथा भ्रष्ट जीवन -

पोप की लौकिक सत्ता का यूरोप में व्यापक विरोध था क्योंकि वे अपनी धार्मिक सत्ता को साधन बना कर अपनी लौकिक सत्ता में वृद्धि कर रहे थे। पोप अलेक्जेंडर षष्टम का जीवन अत्यधिक अनैतिक तथा भ्रष्ट था। अपने पुत्र और पुत्री के लिए वह संपत्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता था। उसका उत्तराधिकारी जूलियस द्वितीय मुख्य रूप से एक सैनिक था और उसकी रुचि मुख्य रूप से अपने राज्य को संगठित करने की थी। लियो दसम जूलियस का उत्तराधिकारी था उसने धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए अनुचित तरीके अपनाए। उसने क्षमा-पत्रों तथा अन्य करों में वृद्धि की। पोप भव्य महलों में रहते थे और उनका जीवन विलासितापूर्ण था।

पोप की निरंकुशता -

पोप की निरंकुश सत्ता उसके दो विशेषाधिकारों पर आधारित थी- प्रथम, इन्टरडिक्ट का अधिकार अर्थात्  पोप किसी भी देश के एक या समस्त गिरजाघरों को बंद करने का आदेश दे सकता था। द्वितीय,  एक्स कम्यूनिकेशन का अधिकार अर्थात्‌  पोप को किसी व्यक्ति या राजा को चर्च से बहिष्कृत कर देने का अधिकार था। उस राजा को इस स्थिति में सिंहासन त्यागना पड़ता था। बहिष्कृत व्यक्ति को  जीवित जला दिया जाता था। पोप के  निरंकुश अत्याचार के लिए ये दोनों अधिकार साधन बन गए थे।

चर्च के दोष -

चर्च के पदाधिकारी विशप, पादरी अपने धार्मिक कर्तव्य की उपेक्षा करते थे तथा भोग विलास में लिप्त रहते थे। वे राजनीति में भाग लेते, अत्याचारों से धन वसूल करते तथा इंद्रिय सुखों में उसे व्यय करते। सामान्य जनता इन पदाधिकारियों के भ्रष्ट जीवन के कारण उनसे घृणा करती थी। इस प्रकार चर्च की पहली बुराई पादरी वर्ग का भ्रष्टाचार था।चर्च में बुराई का दूसरा कारण धन की लिप्सा थी। इसके लिए प्लूरेलिटीज की परंपरा का भी दुरुपयोग किया जाता था। इसके अनुसार आवश्यकता होने पर असाधारण कारणों से एक पादरी कई गिरजाघरों का अध्यक्ष या कई पदों पर रह सकता था।

जनसाधारण के धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन -

जनसाधारण की पोप और पादरियों में श्रद्धा कम हो रही थी। अब वे तीर्थ यात्रा करना या कल्याणकारी कार्यों; जैसे-  अस्पताल और आश्रमों का निर्माण, दान करने में अधिक विश्वास रखते थे। धार्मिक पुस्तकें छापेखाने के कारण अब जनसाधारण को प्राप्त हो रही थीं, जिससे उन्हें सच्चे धर्म का स्वरूप ज्ञात हो रहा था।

पुनर्जागरण का प्रभाव -

लोग अब अंधविश्वासों को स्वीकार करने के स्थान पर बौद्धिक आधार पर धर्म को स्वीकार करना चाहते थे। चर्च की बुराइयों को अनेक विद्वानों ने जनता के समक्ष रखा और सुधारों की मांग की। इस क्षेत्र में इरेस्मस की 'मूर्खता की प्रशंसा' हट्टन की 'लेटर्स ऑफ एन आब्सक्योर मेन' तथा टामस मूर की 'यूटोपिया' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अनेक विद्वान इटली गए और वहां से लौटकर पोप तथा चर्च में व्याप्त बुराइयों को उन्होंने अपने देशवासियों के समक्ष रखा। पुनर्जागरण का दूसरा प्रभाव था कि लोगों में भौतिकवादी विचारों का उद्भव हो रहा था।

चर्च में सुधार की असफलता-

कैथोलिक चर्च का विघटन करना किसी भी धर्म सुधारक का उद्देश्य नहीं था। उनकी इच्छा थी कि चर्च को एक धार्मिक और पवित्र संस्था का रूप प्रदान किया जाए। वे शांतिपूर्ण सुधारों के पक्ष में थे। जब उनके सभी शांतिपूर्ण प्रयास असफल हो गए,  तब मार्टिन लूथर को विद्रोह का मार्ग अपनाना पड़ा।

आर्थिक कारण

बेनीफाइस या निर्वाह क्षेत्र -

चर्च की परंपरा के अनुसार चर्च के प्रत्येक पदाधिकारी को निर्वाह के लिए भूक्षेत्र प्रदान किया जाता था। इसे बेनीफाइस कहते थे। इस परंपरा ने भी भ्रष्टाचार का रूप ले लिया। अपने अधिकार में एक अधिकारी कई बेनीफाइस रखता था तथा दूसरे बेनीफाइसों पर अपने संबंधियों की नियुक्ति कर देता था।जब भी पोप किसी को बेनीफाइस प्रदान करता था,  तब वह पोप को पहले वर्ष की आय देता था। इसे अन्नेट कहते थे।

चर्च के विभिन्न कर -

पोप की आय के भी अनेक साधन थे। पुण्य प्राप्त करने के लिए अनेक राजाओं तथा सामन्तों ने चर्च को भूक्षेत्र दान में दे दिए थे। अनेक व्यक्ति इसलिए चर्च को संपत्ति दान में दे देते थे क्योंकि उन्हें विश्वास होता था कि इससे उनको नर्क में नहीं जाना पड़ेगा। इस प्रकार चर्च को शताब्दियों से विशाल चल-अचल संपत्ति प्राप्त होती रही थी। प्रत्येक राज्य में विभिन्न करों से चर्च को नियमित आय होती थी। आय के इन स्रोतों में अन्नेट, बेनीफाइस की आय, पीटर पेन्स, फर्स्टफ्रूट, टाइथ थे। विशपों से पोप को भेंट के रूप में आय प्राप्त होती थी। अनेक सामंती कर थे जिन्हें चर्च वसूलता था। चर्च को तीर्थ यात्राओं, धार्मिक न्यायालयों की फीस से आय होती थी। इस धन का बड़ा भाग पोप को भेज दिया जाता था।

क्षमा-पत्रों को बेचना -

ईसाई धर्म के अनुसार पोप इस प्रकार के आश्वासन देता था कि उन व्यक्तियों को, जिन्होंने पाप का प्रायश्चित कर लिया हो, ईश्वर क्षमा कर देगा। इससे धनी व्यक्ति इस प्रकार की क्षमा आश्वासन को प्राप्त करने के लिए पोप को धन देने लगे। इससे धीरे-धीरे पोप की विलासिता बढ़ती गई, उसी अनुपात में उनकी धन की आवश्यकता भी बढ़ती गई। अब क्षमा-पत्रों का विक्रय होने लगा।

राजनीतिक कारण

राष्ट्रीय राज्यों की स्वतंत्रता -

मध्य युग में चर्च एक धार्मिक संस्था के साथ-साथ एक राजनीतिक संस्था भी थी। उसके अधिकारी आर्चविशप, विशप, पादरी प्रत्येक राज्य में थे। चर्च कर लगाती थी। चर्च भूस्वामी थी। चर्च के न्यायालय थे। वस्तुतः चर्च की स्थिति राज्य के अंदर राज्य की थी। राजतंत्र के दुर्बल होने तथा सामंतों के संघर्षरत रहने के कारण मध्ययुग में यह व्यवस्था आवश्यक थी लेकिन राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना होने तथा निरंकुश राजतंत्र का उदय होने के कारण अब शक्तिशाली राजा अपने राज्य में शांति व्यवस्था स्थापित करने में सक्षम थे। अतः वे चर्च को राज्य के नियंत्रण में लाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त निरंकुश राजा अपने को संप्रभु मानते थे और अपने ऊपर पोप की सत्ता या उसका हस्तक्षेप सहन करने को तैयार नहीं थे।

मध्यम वर्ग का राष्ट्रीय दृष्टिकोण -

पोप को धन भेजने का व्यापारी वर्ग विरोधी था और चर्च की चल-अचल सम्पत्ति को उत्पादक कार्यों में प्रयुक्त करना चाहता था। चर्च की सम्पत्ति पर राजाओं की भी दृष्टि थी। राष्ट्रवाद के प्रभाव के कारण वे चर्च को भी राष्ट्रवाद का अंग बनाना चाहते थे।

तात्कालिक कारण

पश्चिमी यूरोप के देशों में पोप लियो दसम ने क्षमा-पत्रों को बेचने के लिए अपने प्रतिनिधि भेजे थे। रोम में वह सेंट पीटर के विशाल गिरजाघर का निर्माण करा रहा था जिसके लिए उसे धन की आवश्यकता थी। जर्मनी के मेंज नगर में उसका एक प्रतिनिधि क्षमा-पत्रों को बेचने के लिए गया। जब वह विटेनबर्ग पहुंचा तो लूथर ने क्षमा-पत्रों के विक्रय का विरोध किया। उसने विटेनबर्ग के चर्च के द्वार पर 95 प्रश्नों की सूची लगा दी। लूथर ने प्रश्नों की सूची को लैटिन भाषा में लिखा था। इसका शीघ्र ही जर्मनी भाषा में अनुवाद हो गया और इसका प्रचार सारे जर्मनी में हो गया।इस के साथ ही धर्म सुधार आंदोलन आरम्भ हो चुका था।

धन्यवाद।

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