जर्मनी में धर्म सुधार आन्दोलन

सबसे पहले जर्मनी में धर्म सुधार आन्दोलन शुरू हुआ। जर्मनी को पवित्र रोमन साम्राज्य कहा जाता था। पवित्र रोमन साम्राज्य एक ढीला-ढाला संघ राज्य के समान था। आस्ट्रिया का राजा इसका सम्राट होता था लेकिन औपचारिक रूप से उसका निर्वाचन मध्यम श्रेणी के राज्यों के शासक करते थे जिन्हें इलेक्टर जाता था।

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मार्टिन लूथर 

मार्टिन लूथर -

मार्टिन लूथर का जन्म 10 नवंबर 1483 ईस्वी को सेक्सनी के एक निर्धन कृषक परिवार में हुआ था। उसके पिता ने उसे 14 साल की उम्र में मेग्डेबर्ग के स्कूल में पढ़ने भेजा। 1501 ईस्वी में एरफर्ट के विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। उन्होंने अपने पिता की इच्छा के अनुसार कानून का अध्ययन आरम्भ किया लेकिन इसमें मन न लगने के कारण उन्होंने धर्मशास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया।
लूथर ने 1503 ईस्वी में मास्टर ऑफ फिलॉसफी की उपाधि प्राप्त की। उसके मन में अनेक घटनाओं ने वैराग्य की भावना उत्पन्न कर दी और 1505 ईस्वी में वह एरफर्ट के  साधुओं के एक मठ का सदस्य बन गया। उसने 1507 ईस्वी में पादरी पद की दीक्षा ली।
सेक्सनी के इलेक्टर ने विटेनबर्ग में एक विश्वविद्यालय में लूथर को धर्मशास्त्र का प्राध्यापक नियुक्त किया। लूथर ने धर्मनिष्ठ कैथोलिक के रूप में 1512 ईस्वी में रोम की तीर्थयात्रा की। उसके हृदय में उस समय चर्च के प्रति अत्यधिक श्रद्धा तथा सम्मान था।
लूथर रोम में वैभवशाली भवन, पादरियों का भ्रष्ट और पतित जीवन, उनका भोगविलास तथा सांसारिकता के प्रति उनका आकर्षण देखकर अत्यन्त क्षुब्ध हुआ।

क्षमा-पत्रों का विरोध -

पोप लियो दसम का प्रतिनिधि टेन्टजेल क्षमा-पत्रों को बेचने के लिए जर्मनी आया। पोप सेन्ट पीटर के विशाल गिरजाघर का निर्माण करा रहा था और उसे धन की आवश्यकता थी। लूथर ने क्षमापत्रों के विक्रय का विरोध किया। उसने 31 अक्टूबर, 1517 ईस्वी को विटेनबर्ग के कैसल गिरजाघर पर क्षमापत्रों के विरोध में 95 प्रश्न लिखकर टांग दिए। उसने शास्त्रार्थ की चुनौती दी। जर्मनी में शीघ्र ही लूथर के विचारों का प्रचार हो गया और उन्हें व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।

लूथर तथा चर्च के मध्य संघर्ष -

पोप ने 1519 ईस्वी में एक प्रकांड विद्वान जोहन को लूथर से शास्त्रार्थ करने के लिए भेजा। शास्त्रार्थ लियजिग में हुआ। इसमें भी लूथर ने स्पष्ट किया कि पोप की सत्ता का आधार ईश्वरीय नहीं था बल्कि यह आधार मानवीय था और पोप भूल से परे नहीं है। लूथर ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि धार्मिक आस्था के बारे में केवल धर्म ग्रंथों को ही प्रमाण माना जा सकता है।
इसके बाद पोप ने लूथर को रोम बुलाया जिससे लूथर के प्रश्नों का उत्तर वह स्वयं दे लेकिन लूथर को फ्रेडरिक (सेक्सनी का इलेक्टर) ने रोम नहीं जाने दिया और पोप से इस विवाद का हल जर्मनी में ही करने को कहा।

लूथर का चर्च से निष्कासन -

पोप ने रोम में लूथर पर मुकदमा आरम्भ किया। इस पर लूथर  आक्रामक रुख अपनाकर चर्च से संबंध-विच्छेद करने के लिए तैयार हो गया। उसने इस सम्बन्ध में तीन रचनाओं  (पर्चे) को प्रकाशित किया। एक पर्चे में उसने जर्मन शासकों से पादरियों के विशेषाधिकार समाप्त करने और विदेशी हस्तक्षेप न होने देने, चर्च की बुराइयों को दूर करने, चर्च की सम्पत्ति जब्त कर लेने और चर्च की राजनीतिक शक्ति छीन लेने के लिए कहा।
दूसरे पर्चे में उसने पोप की निंदा करते हुए पुरोहित प्रणाली की आलोचना की और संस्कार प्रणाली पर प्रहार किया। तीसरे पर्चे में चर्च के सिद्धांतों की उसने व्याख्या करते हुए कहा कि मोक्ष सत्कार्यों के करने तथा ईश्वर की शरण में जाने से प्राप्त होगा।
 पोप ने 1520 ईस्वी में निर्णय दिया कि लूथर 60 दिनों के अन्दर विद्रोही मार्ग छोड़ दे। लूथर ने इस आरोप को स्वीकार नहीं किया। इस पर लूथर और उसके अनुयायियों को पोप ने चर्च से बहिष्कृत कर दिया और नास्तिक घोषित कर दिया।

वर्म्स की संसद -

चर्च से बहिष्कृत होने पर मृत्युदंड या जीवित जला देने की परम्परा थी। पोप ने पवित्र रोमन साम्राज्य के सम्राट चार्ल्स पंचम के पास बहिष्कृत करने की घोषणा भेजी। सम्राट ने लूथर को सीधे मृत्युदंड देने की अपेक्षा उसका मामला साम्राज्य की संसद में रखा और संसद की बैठक वर्म्स में बुलायी।
लूथर 1526 ईस्वी में संसद के समक्ष उपस्थित हुआ। उसने अपने सिद्धांतों में पुनः आस्था प्रकट कर पोप की आलोचना की। इस पर लूथर को सम्राट ने नास्तिक घोषित कर दिया तथा उसे साम्राज्य की सुरक्षा से वंचित कर दिया। इस आदेश पर भी लूथर को मृत्युदंड नहीं दिया जा सका क्योंकि पुनः उसके प्राणों की रक्षा फ्रेडरिक ने की और उसे विटेनबर्ग  के किले में छिपा कर रखा। यहीं उसने बाइबल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया।

प्रोटेस्टेंट धर्म की स्थापना -

संसद की दूसरी बैठक 1529 ईस्वी में हुई। इसमें धर्म विद्रोहियों के विरुद्ध दंड देने का आदेश दिया। कई जर्मन शासकों ने इसके विरोध में एक विरोध पत्र (प्रोटेस्ट) प्रस्तुत किया। इस प्रकार लूथर के अनुयायी प्रोटेस्टेन्ट कहलाए। तीसरी आग्सबर्ग की संसद में 1530 ईस्वी में इस पर फिर विचार किया गया लेकिन लूथर का धर्म इस समय स्थापित हो चुका था और उसकी लोकप्रियता जर्मन जनता और शासकों में इतनी बढ़ गई थी कि लूथर के खिलाफ कार्रवाई असम्भव हो गई। अंत में 1555 ईस्वी में आग्सबर्ग की संधि के द्वारा लुथरवाद को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया गया।

आग्सबर्ग की संधि -

  • प्रत्येक राज्य को अपनी प्रजा के धर्म का निर्णय करने का अधिकार होगा।
  • चर्च की जिस संपत्ति पर 1552 ईस्वी के पूर्व प्रोटेस्टेंट लोगों ने अधिकार कर लिया था, वह उसी के पास रहेगी।
  • लूथरवाद को छोड़कर किसी भी अन्य धर्म को मान्यता प्रदान नहीं की जाएगी और उनके विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी।
  • अगर लूथरवाद को कोई कैथोलिक स्वीकार करता है तो चर्च की संपत्ति छोड़नी पड़ेगी।
  •  जर्मनी में जिन कैथोलिक राज्यों में लूथरवाद के अनुयायी थे, उन्हें अपना धर्म छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
1546 ईस्वी में आग्सबर्ग की संधि के पूर्व ही लूथर की मृत्यु हो चुकी थी। कैथोलिक चर्च में उसने सुधार की मांग के साथ संशोधन किया था और अंत में एक नवीन धर्म स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

धन्यवाद।

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