कोणार्क - सूर्य मन्दिर

उड़ीसा के कुशल शिल्पियों की रचना है कोणार्क का अभिराम सूर्य मन्दिर। भारतवर्ष में सूर्य की पूजा अत्यंत प्राचीन है और सूर्य का मन्दिर होने के कारण इसे कोणार्क कहते हैं। निरन्तर धूप तथा वर्षा के कारण यह कृष्णकाय हो गया है, अतएव, काला पगोडा के नाम से भी इसकी प्रसिद्धि है। पुरी की पवित्र नगरी से प्रायः 35 किलोमीटर की दूरी पर यह समुद्र के तट पर उत्तर पूर्व दिशा में एकाकी खड़ा है। केसरी राजवंश के प्रथम नरसिंहदेव ने सन् 1238-64 ईस्वी के मध्य  इसका निर्माण कराया था।

 Konark Sun Temple
konark sun temple

मन्दिर योजना -

उड़ीसा के कोणार्क मन्दिर की योजना अन्य सूर्य मंदिरों से अलग है। इसकी योजना सूर्य रथ के आकार की है, जिसमें सात अलंकृत अश्व रथ खींचते दृष्टिगोचर हो रहे हैं। ये अलंकृत अश्व सूर्य की सात किरणों के प्रतीक हैं। रथ के नीचे दोनों ओर 12 पहिये बने हैं जिनमें से प्रत्येक पहिया 3 मीटर ऊंचा है। वस्तुतः इस मंदिर की कल्पना में भाव यह है कि मानो सूर्य का रथ ही मंदिर के रूप में पृथ्वी पर उतर आया है।

मन्दिर की शैली -

उड़ीसा शैली के मन्दिरों की भांति यह मन्दिर भी 264 मीटर लम्बे और 165 मीटर चौड़े प्रांगण के बीच एक विशाल चबूतरे पर निर्मित है, जो ऊंची चहारदीवारी से घिरा है। इस चहारदीवारी में तीन ओर प्रवेशद्वार हैं। कोणार्क मन्दिर की योजना अत्यंत सरल है। इसमें देउल, जगमोहन, नटमंडप तथा भोगमंडप- इन चार कक्षों की योजना है, जो उड़ीसा शैली के अनुकूल है।

देउल -

मंदिर के देउल की नींव से संलग्न तीन लघु देवालय थे जिनमें प्रतिमाएं थी। देउल के अंदर एक वर्गाकार गर्भगृह था, जिसकी छत चार स्तंभों पर आश्रित थी। इसकी दीवारें बिल्कुल सादी थीं। गर्भगृह के अंदर मानवाकार कृष्णकाय प्रस्तर निर्मित सूर्य प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इसका शिखर धरातल से 67.50 मीटर ऊंचा था और इसकी बनावट ठोस थी।

जगमोहन -

मुख्य मन्दिर से संलग्न जगमोहन है। इन दोनों कक्षों के बीच 7.50 मीटर वर्गाकार अन्तराल की योजना है। जगमोहन वर्गाकार है, जिसकी प्रत्येक भुजा 30 मीटर की है। इसके दो प्रमुख अंग हैं - नीचे का वर्गाकार भाग अथवा 'बड' तथा ऊपर का शुंडाकार भाग अथवा 'पीढा'। बड की योजना वर्गाकार है किन्तु अनेक प्रक्षेपणों के कारण यह घनाकार हो गया है। बड की चौड़ाई उसकी ऊंचाई से दोगुनी है, परंतु संपूर्ण मन्दिर की चौड़ाई एवं ऊंचाई समान है।

छत योजना  -

इसकी शुंडाकार छत 30 मीटर ऊंची है। इसमें प्रयुक्त प्रस्तर खण्ड एक के ऊपर एक इसी क्रम से तीन वर्गाकार पंक्तियों में नियोजित हैं। प्रत्येक पंक्ति के बीच चौरस स्थान पर मानवाकार मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इनमें वाद्य-वादन करती हुई मूर्तियों का अत्यंत सजीव अंकन है। प्रत्येक पंक्ति में प्रक्षेपण के कारण छतरियाँ बन गई हैं। नीचे की 2 पंक्तियों में 6-6 छतरियाँ हैं तथा सबसे उपरी पंक्ति में मात्र 5 छतरियाँ हैं, जो क्षैतिज रूप से व्यवस्थित हैं। ये पंक्तियां मंचोत्थित शैली में ऊपर की ओर क्रमशः वक्राकार होती गई हैं। इनके ऊपर शुंडाकार छत की चारों भुजाएं शीर्ष बिंदु पर आकर मिल गई हैं, जो धारीदार आमलक से मंडित है। संपूर्ण मंदिर इसी आमलक पर संतुलित है।
इसकी शुंडाकार छत की योजना इतनी विशाल थी कि छत के भारग्रहण हेतु एक और छत का निर्माण किया गया लेकिन विशालता के अनुपात में यह भी पर्याप्त नहीं थी। अंत में लोहे की शहतीर इसे संभालने में समर्थ हुए। ये  शहतीर 7.50 मीटर लंबे तथा 17.50 सेमी मोटे हैं। इनको ढालकर नहीं बनाया गया है, वरन कई छोटे-छोटे टुकड़ों को जोड़कर शहतीर का रूप दिया गया है।

प्रवेश द्वार -

मंदिर में तीन और प्रवेश द्वार हैं, जिनमें सीढ़ियां बनी हैं। इसका मुख्य प्रवेश द्वार पूर्वाभिमुख है।  मंदिर के ऊंचे चबूतरे पर जाने के लिए चौड़ी सीढ़ियां बनी हैं। इन सीढ़ियों के एक ओर तीन तथा दूसरी ओर चार सुंदर, सुडौल एवं पुष्ट घोड़े बने हैं। उनके खुर, पुट्ठे, नथुने सभी जैसे फड़फड़ा रहे हों। इन घोड़ों में इतनी शक्ति एवं स्फूर्ति है, मानो वे हवा में उड़ रहे हों। सारथी उनको संभालने की चेष्टा कर रहा है, पर बड़ी कठिनाई से वह इनको रोक पा रहा है।

नटमंडप -

नटमंडप यह मुख्य मंदिर से लगभग 9 मीटर दूर मुख्य प्रवेश द्वार के सम्मुख खड़ा है। पर्सी ब्राउन के अनुसार, मुख्य मंदिर तथा  नटमंडप के बीच एक कीर्ति स्तंभ था, जिस पर अर्जुन की मूर्ति उत्कीर्ण थी। बहुत दिनों पहले इसे यहां से हटाकर जगन्नाथ मंदिर के पूर्वी प्रवेश द्वार पर लगा दिया गया है।

भोगमंडप -

कोणार्क मंदिर की चहारदीवारी के दक्षिण पूर्व की ओर भोगमंडप है। इसके सभी अंग समानुपाती हैं, जो परिपक्व शैली के द्योतक हैं। कोणार्क मंदिर का अंग-प्रत्यंग बेल-बूटे, देवी-देवताओं एवं काल्पनिक पशुओं की मूर्तियों से अलंकृत है। इन मूर्तियों की शिल्पकला शुद्ध भारतीय है।

मन्दिर की मूर्तिकला -

मंदिर की बाह्य दीवारों पर क्षैतिज रूप में अनेक मूर्ति-रहित रथिकायँ बनी हैं। देवी-देवताओं की मूर्तियों तथा मिथुन मूर्तियों के  अतिरिक्त अन्य विषयों का भी प्रदर्शन है। इनमें ऐतिहासिक कथानक, लोक कथाएं, संगीत प्रदर्शन तथा ग्रहस्थ जीवन की भी झाकियाँ मिलती हैं। छोटे आकार में इतना गंभीर अलंकरण आश्चर्य का विषय है। इतना होते हुए भी मिथुन मूर्तियों की बहुलता है।

विशेषता -

स्थापत्य कला की दृष्टि से कोणार्क मंदिर अलौकिक एवं अनुपम है। कृष्णकाय प्रस्तर निर्मित इस मंदिर में गारे चूने का प्रयोग नहीं दिखलाई पड़ता है। प्रस्तर खंडों को एक के ऊपर एक इस प्रकार रखा गया है कि उनका संतुलन बना रहे।

ताड़ पत्र अंकित एक पांडुलिपि में कोणार्क के सूर्य मंदिर के अनेक रेखा चित्र अंकित है, जो इसकी स्थापत्य योजना एवं निर्माण शैली पर यथेष्ट प्रकाश डालते हैं।  इस मंदिर के शिखर के ऊपर सिंह की एक विशाल मूर्ति थी, जिसका वजन लगभग 3.20 मीट्रिक टन था। यह मूर्ति सन 1610 ईसवी के लगभग मुख्य कक्ष को खंडित करते हुए धरातल पर आ गिरी। वस्तुतः कोणार्क मंदिर के ऊपर इस सिंहमूर्ति की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। इसे तो मात्र केसरी वंश का गौरव बढ़ाने के लिए स्थापित किया गया था।

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