मोहनजोदड़ो

मोहनजोदड़ो सिन्ध के लरकाना जिले में करांची से लगभग 300 मील उत्तर की ओर स्थित है। यह सिन्धो शब्द मोयांजोदड़ो से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है मरे हुओं की ढेरी या टीला। यह लरकाना जिले के मैदान में एक ऊंचे टीले का स्थानीय नाम है। इसके आसपास की भूमि उपजाऊ है और अब भी इसे नखलिस्तान या सिन्ध का बाग कहा जाता है।यह नगर दो टीलों पर खड़ा है। एक 1300 गज लम्बा और 600 गज चौड़ा और दूसरा 400 गज लम्बा और 300 गज चौड़ा है।

Mohenjodaro
Geeat bath-Mohenjodaro

उत्खनन कार्य -

सन 1921 ईस्वी में मोहनजोदड़ो की खोज भारतीय पुरातत्व के इतिहास की एक असाधारण उपलब्धि थी। श्री राखलदास बनर्जी को यहां एक बौद्ध समाधि प्राप्त हुई थी। इस आशा से यहां बौद्ध धर्म संबंधी कुछ सामग्रियां प्राप्त होंगी, बनर्जी महोदय ने उत्खनन का कार्य आरंभ करवाया। किंतु यहां बौद्ध  सामग्री का अवशेष नहीं अपितु एक पूरी सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए। तत्पश्चात पानी को छूती हुई 7 तहों तक खुदाई हुई। इन्हीं के सुझाव पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने क्रमशः जॉन मार्शल और तदनन्तर अर्नेस्ट मैके के निर्देशन में 1922 से 1931 ई0 तक यहाँ उत्खनन कार्य किया।

नगर योजना एवं भवन निर्माण कला -

मोहनजोदड़ो का टीला दो भागों में विभाजित है पश्चिम की ओर ऊंचे टीले पर बना हुआ दुर्ग और पूर्व की ओर बसा हुआ निचला नगर जिसका क्षेत्र पश्चिमी टीले से पर्याप्त विस्तृत है।

दुर्ग क्षेत्र -

यह लगभग समानांतर चतुर्भुज के आकार का है। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण में प्राय 400-500 गज और पूर्व से पश्चिम में लगभग 200-300 गज है। दुर्ग क्षेत्र का निर्माण कच्ची ईटों से बने एक कृत्रिम टीले पर हुआ है।
सिंधु नदी में समय-समय पर आने वाली बाढ़ से दुर्ग क्षेत्र की रक्षा के लिए 43 फीट चौड़े मिट्टी की ईंटों से बने एक बांध के अवशेष भी मिले हैं। लगभग इस बांध के निर्माण काल में ही दुर्ग क्षेत्र के टीले के ठीक नीचे 14 फीट ऊंची पक्की ईंटों की एक विशाल नाली का भी निर्माण हुआ था।
दुर्ग टीले के दक्षिण पूर्वी कोण पर पक्की ईंटों की बनी बुर्जों के ध्वंसावशेष मिले हैं। ये बुर्जें सुरक्षा की दृष्टि से बनाई जाती थीं। ये पक्की ईंटों की सुदृढ नींव पर बनी हुई हैं। इस मीनार के विषय में एक उल्लेखनीय तथ्य है कि इसकी संरचना में लकड़ी का भी उपयोग किया गया था। पक्की ईंटों के साथ लकड़ी का इस प्रकार का उपयोग मोहनजोदड़ो के पीछे के निर्माण कार्यों में नहीं दिखाई पड़ता है। सम्भवतः सिंधु निवासियों को यह प्रयोग छोड़ देना पड़ा क्योंकि लकड़ी के शीघ्र नष्ट हो जाने पर पक्की ईटों की दीवारें गिरने लगती थीं और उनकी पुनः पक्की ईटों से ही मरम्मत करनी पड़ती थी।
दुर्ग क्षेत्र के पश्चिमी भाग में अन्नागार के दक्षिण में पक्की ईंटों से बनी एक 10 फीट ऊंची मीनार प्राप्त हुई है। इस मीनार के उत्तर में एक छोटे चोर दरवाजे होने का भी अनुमान किया जाता है।

विशाल स्नानागार -

इसकी लंबाई, चौड़ाई और गहराई क्रमशः 31× 23×8 फीट है। इस स्नान कुंड में जाने के लिए उत्तर व दक्षिण की ओर ईटों की सीढ़ियां बनी हुई हैं। उत्तरी सीढ़ियों के निकट एक कम ऊंचा चबूतरा बना हुआ है और उसके समीप एक अन्य छोटी सीढ़ी है। फर्श में भलीभांति काटकर खड़ी ईटों की एकदम पक्की जुड़ाई की गई है, जिससे उसमें पानी के छनने की तनिक भी संभावना न रहे। यह जलाशय सुंदर ईटों से निर्मित है तथा इसे राल मिश्रित मसाले से पूर्णतः जल निरोधक बनाया गया है। एक कोने में बने हुए छिद्र के द्वारा इसके जल को बाहर निकाला जा सकता था तथा यह एक ढके हुए मार्ग से घिरा था।जिस पर अनेक छोटे-छोटे कक्षों के द्वार थे। डॉ0 ए0 एल0 बाशम का कहना है कि हिंदू मंदिर के जलाशय की भांति, सम्भवतः इसका भी धार्मिक महत्व था।

अन्नागार -

अपने मूल रूप में यह पूर्व से पश्चिम में 150 फीट लंबा और 65 फीट चौड़ा था किंतु शीघ्र ही दक्षिण दिशा में इसका और विस्तार कर दिया गया था। अन्नागार की योजना से ऐसा लगता है कि मूल रूप में इसमें पक्की ईंटों से बने हुए 27 कोठे थे, जिनमें अन्न भरा जाता था और उनकी बनावट ऐसी थी जिससे उनके भीतर वायु प्रवेश कर सके। अन्नागार की दीवारें अत्यंत सुदृढ थीं। अनुमान किया जाता है कि कर के रूप में राज्य द्वारा वसूल किया जाने वाला अन्न  इन अन्नागारों में जमा किया जाता रहा होगा।

मृदभांड -

अधिकतर मृदभांडों के भग्न अवशेष ही प्राप्त होते हैं। मिट्टी के बर्तन प्रायः मिट्टी, अभ्रक, चूना और बालू की सहायता से बनाए जाते थे। मोहनजोदड़ो के बर्तन खूब अच्छी तरह पकाए गए हैं। अधिकतर बर्तनों के तल को चपटा कर दिया जाता था, जिससे बर्तन बिना किसी वस्तु की सहायता के ठहर सकें। चित्रित पात्रों का अलंकरण अधिकतर पड़ी हुई रेखाओं, वृत्तों, बिंदुओं या हिरन, बकरी, खरगोश, कौवा, गिलहरी, मोर, सांप, मछली जैसे पशु पक्षियों की आकृति द्वारा किया है। ध्यातव्य है कि यहां प्राप्त होने वाले बर्तनों पर मानव आकृतियों का चित्रण नहीं किया गया।

मृण्मयी मूर्तियां -

मोहनजोदड़ो से मिट्टी की मूर्तियां मनुष्य और पशु दोनों प्रकार की हैं। मोहनजोदड़ो के दुर्ग क्षेत्र के अन्नागार से प्राप्त नग्न पुरुष की मूर्ति कला प्रदर्शन, बाल विनोद और अलंकारिक उपयोगिता के लिए प्रसिद्ध हैं। स्त्रियों की मूर्तियां अधिक प्रभावोत्पादक हैं। वे गहनों से लदी हुई हैं। एक स्त्री मूर्ति के मस्तक पर पंखे के सामान फैला हुआ एक आभूषण है, जिसके निचले भाग में एक फीता बंधा हुआ है। कभी-कभी मूर्तियों के कटीप्रदेश के पास एक बच्चा भी दिखाया गया है, जिससे उसका मातृत्व सूचित होता है। कभी-कभी स्त्रियों को गर्भवती दिखाया गया है, जो उनका जननी रूप प्रकट करता है।

मोहरें -

मोहनजोदड़ो से 1200 से भी अधिक मोहरें प्राप्त हुई हैं। अधिकांश मोहरें घिया पत्थर की हैं और इनका औसत आकार 1.5 इंच लंबा और 7.5 इंच चौड़ा है। उत्खनन से प्राप्त एक मोहर पर अंकित कूबड़ वाला बैल कला का सुंदर उदाहरण है। इस पशु के सामने नियमित रूप से एक चित्रित स्तम्भ या ध्वज चिन्ह है।
मोहरों पर मानव आकृतियां अपेक्षाकृत कम उपलब्ध हुई हैं। इन मोहरों में सबसे अधिक महत्व की मोहनजोदड़ो की तीन मोहरें हैं जिन पर एक असामान्य पुरुष की आकृति बनी हुई है। दो मोहरों पर मानव आकृति को त्रिमुख दिखाया गया है। मार्शल महोदय ने इसे पशुपति या शिव का पूर्व रूप तथा सिंधु सभ्यता के लोगों का प्रमुख देवता बताया है। इस प्रकार शिव की कल्पना का विकास मात्र वैदिक देवता रूद्र से ही नहीं मानना चाहिए। इस परवर्ती कल्पना में अपने शुभ और  कल्याणकारी रूप की जो प्रधानता है उसका स्पष्ट परिचय सैंधव सभ्यता के लोकप्रिय त्रिमुख देवता में देखा जा सकता है।

धन्यवाद।

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