बौद्ध स्तूप

स्तूप का शाब्दिक अर्थ है किसी वस्तु का ढेर, मिट्टी का चबूतरा तथा एक के ऊपर एक संचित पत्थरों का टीला। स्तूप का विकास संभवतः मिट्टी के ऐसे चबूतरे से हुआ जिसका निर्माण मृतक की चिता के ऊपर अथवा मृतक की चुनी हुई अस्थियों के रखने के लिए किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि गौतम बुद्ध की मृत्यु के पूर्व भी इनका निर्माण विशिष्ट व्यक्तियों तथा राजाओं की समाधि के ऊपर किया जाता था।

Bodh Stupa
Bodh Stupa

बौद्ध धर्म और स्तूप -

बौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध के निर्वाण के बाद उत्तर भारत के तत्कालीन शासकों और एक ब्राह्मण ने अवशिष्ट अस्थियों और भस्म आदि के आठ भाग किए तथा अपने-अपने भाग के ऊपर प्रत्येक ने एक-एक स्तूप का निर्माण कराया था। विनय-पिटक के महापरिनिब्बाण सुत्त में इन स्तूप निर्माता शासकों का उल्लेख इस प्रकार है -
  1. मगध नरेश अजातशत्रु 
  2. वैशाली के लिच्छवि 
  3. कपिलवस्तु के शाक्य 
  4. अलकप्प के बुलिए 
  5. रामगाम के कोलिए 
  6. वेठदीप का एक ब्राह्मण 
  7. पावा के मल्ल 
  8. कुशीनारा के मल्ल

पिप्पलिवन के मोरिय कुशीनारा तब पहुंचे, जब अवशिष्ट अस्थियों का बंटवारा हो चुका था। इसलिए उनको चिता के चारो और बिखरे अंगारों से ही संतोष करना पड़ा, जिस पर उन्होंने अंगार स्तूप का निर्माण कराया। द्रोण नामक ब्राह्मण,  जिसने अवशिष्ट अस्थियों तथा भस्म के आठ भाग किए थे,  ने अस्थि कलश के ऊपर एक स्तूप का निर्माण कराया था।
धातु पात्र होने के कारण स्तूप धीरे-धीरे गौतम बुद्ध के प्रतीक माने जाने लगे और बौद्ध धर्म के अनुयायियों की उनके प्रति भक्ति भावना बढ़ती गई। इसका परिणाम यह हुआ कि बुद्ध की शरीरधातु भस्म, केश, दन्त आदि के अतिरिक्त बुद्ध द्वारा प्रयुक्त की गई वस्तुओं जैसे भिक्षा पात्र, वस्त्र आदि को रखने के लिए भी स्तूप का निर्माण किया गया।
गौतम बुद्ध के जीवन की प्रमुख घटनाओं से सम्बन्धित  स्थानों पर भी स्तूप का निर्माण होने लगा। कालांतर में ऐसे  स्तूप निर्मित हुए जिनमें किसी प्रकार की शरीरधातु अथवा अवशेष नहीं थे किन्तु गौतम बुद्ध का प्रतीक मानकर उनकी पूजा की जाती थी।

स्तूप के प्रकार -

1. शारीरिक स्तूप सबसे प्रधान हैं, जिनमें गौतम बुद्ध की शरीरधातु केश, दन्त मोग्गलान एवं आनन्द आदि प्रमुख आचार्यों एवं भिक्षुओं के शारीरिक अवशेषों के ऊपर बने उन्हें इस श्रेणी में रख सकते हैं।
2. पारिभोगिक स्तूप दूसरा प्रमुख प्रकार है। पारिभोगिक अर्थात गौतम बुद्ध द्वारा उपयोग की गई वस्तुओं को रखने के लिए जो स्तूप बनाए गए। भिक्षा-पात्र, चीवर एवं संघाटी तथा पादुकाओं आदि की गणना उन वस्तुओं में की जा सकती है।
3. उद्देशिक स्तूप गौतम बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं की स्मृति से जुड़े स्थानों पर स्मारक के रूप में बनाए गए थे।
4. चैत्य स्तूप अपेक्षाकृत छोटे आकार के बनाये जाते थे। इस प्रकार के स्तूप बहुत बड़ी संख्या में प्रत्येक तीर्थ स्थान पर बौद्ध तीर्थ यात्रियों द्वारा समय-समय पर बनवाए गए।

स्तूप के प्रमुख अंग -

वेदिका -

स्तूप के आधार के चारों ओर एक घेरा होता था जिसको वेदिका कहते थे। इसका निर्माण प्रारम्भ में स्तूप की रक्षा के उद्देश्य से किया गया होगा। प्रारंभिक बौद्ध स्तूपों का वेदिका अनिवार्य अंग थी। शुंग-सातवाहन और उसके बाद के कालों में स्तूपों में जो वेदिकाएं बनाई गयीं  उनमें थोड़े-थोड़े अन्तराल पर स्तम्भ खड़े किए जाते थे। दो खड़े स्तम्भों में तीन पड़ी सूचियां चूल काटकर बनाई जाती थीं। स्तम्भों के ऊपर जो गोलाकार पत्थर लगाया जाता था उसको उष्णीश कहते थे। वेदिका अलंकृत और अनलंकृत दोनों प्रकार की बनाई जाती थी।

तोरण -

स्तूप के चारों दिशाओं में चार प्रवेश द्वार होते थे। प्रवेश द्वार को अलंकृत करने के लिए कालान्तर में तोरण बनाए जाने लगे। प्रत्येक तोरण के लम्बवत दो विशाल स्तम्भ होते थे जिनके ऊपर तीन धरणों को एक के ऊपर एक समानान्तर दूरी पर क्षैतिजाकार रखा जाता था। प्रत्येक दो धरणियों के बीच में छोटे-छोटे स्तम्भ होते थे। धरणियों को अलंकृत करने के लिए बौद्ध जातक कथाओं का सहारा लिया जाता था।

प्रदक्षिणापथ -

वेदिका तथा स्तूप के बीच में जो खाली स्थान होता था वह परिक्रमा करने का काम देता था। उसको प्रदिक्षणापथ कहते थे। 

मेधि -

वह गोल चबूतरा जिसके ऊपर स्तूप का मुख्य भाग आधारित होता था उसको मेधि कहा जाता था। 

अण्ड -

स्तूप का अर्द्ध-गोलाकार ठोस भाग अण्ड कहलाता था। यही स्तूप का प्रमुख भाग होता था। इसका निर्माण ईट व पत्थर से किया जाता था। 

हर्मिका -

स्तूप के शिखर पर अस्थि-पात्र को गाड़ कर रखने के लिए जो स्थान होता था उसको चौकोर वेदिका से घेर दिया जाता था जिसको हर्मिका कहते थे।

यष्टि और छत्र -

हर्मिका के ऊपर यष्टि और छत्र बनाए जाते थे। यह छत्र धार्मिक चिन्ह था। छत्र को सहारा देने के लिए पत्थर का जो लम्बा एवं पतला स्तम्भ खड़ा किया जाता था उसको यष्टि कहते थे। प्राय एक ही यष्टि का निर्माण किया जाता था किन्तु कभी-कभी एक से अधिक यष्टियों का भी निर्माण किया जाता था। छत्र जब एक से अधिक होते थे तो उनको छत्रावली कहा जाता था। स्तूप के शिखर पर बनी चौकोर वेदिका के ऊपर छत्र लगा रहता था।

सोपान -

स्तूप के ऊपर चढ़ने उतरने के लिए जो सीढ़ियाँ बनायी जाती थीं, उनको सोपान कहते थे। 

अधिकांश प्राचीन स्तूप सुरक्षित रूप में विद्यमान हैं, उन के आधार पर प्रारम्भिक स्तूपों के स्वरूप का अनुमान लगाया जा सकता है। साँची के महास्तूप में उपयुक्त सभी विशेषताएँ प्रायः मिलती हैं।

धन्यवाद।

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