मनसबदारी व्यवस्था

मनसबदारी व्यवस्था मुगल सैनिक व्यवस्था का मूलाधार थी।जो मंगोलो की 'दशमलव-पद्धति' पर आधारित थी। मनसबदारी व्यवस्था की प्रेरणा 'खलीफा अब्बासईद' द्वारा आरम्भ की गयी तथा चंगेज खां एवं तैमूर द्वारा अपनायी गयी व्यवस्था से प्राप्त की थी। मनसब कोई पदवी या पद-संज्ञा नहीं थी वरन् यह किसी अमीर की स्थिति का बोध कराती थी। इस प्रकार मनसब का अर्थ पद या श्रेणी था।

Mansabdari System
Akbar

अकबर और मनसब -

  • अकबर के शासन काल के 11 वें वर्ष में पहली बार मनसब प्रदान किए जाने का संकेत मिलता है। 
  • अकबर ने अपने सम्पूर्ण मनसब को अल्लाह शब्द की गणना के योग अर्थात् 1+30+30+ 5=66 श्रेणियों में विभाजित किया था, किन्तु अबुल फजल ने केवल 33 श्रेणियों का ही उल्लेख किया है।
  • अकबर ने अपने अन्तिम वर्षों में मनसबदारी व्यवस्था में जात एवं सवार नामक द्वैध मनसब प्रथा को प्रारम्भ किया।
  • जात शब्द से व्यक्ति के वेतन तथा पद की स्थिति का बोध होता था, जबकि सवार शब्द से घुड़सवार दस्ते की संख्या का बोध होता था। 
  • अकबर के समय में सबसे छोटा मनसब 10 का तथा सबसे बड़ा 10,000 का होता था जो कालान्तर में 12,000 तक हो गया।
  • 5000 से ऊपर के मनसब केवल शहजादों तथा राजवंश के लोगों के लिए सुरक्षित होते थे। बाद में अकबर ने मिर्जा अजीज कोका तथा मानसिंह को 7-7 हजार का मनसब प्रदान किया था। 
  • जहांगीर और शाहजहां के काल में सरदारों को 8000 तक के मनसब तथा शहजादों को 40,000 के मनसब दिये जाने लगे। जिसकी संख्या उत्तर-मुगल काल में 50,000 तक पहुंच गयी।

श्रेणियां -

  • मनसबदारों को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा गया था -
  1. 10 से 500 के नीचे तक - मनसबदार 
  2. 500 जात से अधिक किन्तु 2500 से कम - अमीर 
  3. 2500 जात तथा इससे अधिक पर - अमीर-ए-उम्दा

वेतन -

  • मनसबदारों को नकद व जागीर के रूप में वेतन मिलता था किन्तु जागीर से उसे केवल राजस्व प्राप्ति का ही अधिकार होता था। भूमि पर प्रशासनिक अधिकार नहीं।
  • मनसबदारों के वेतन का निर्धारण सामान्यतया 5 महीने से कम तथा 10 महीने से अधिक अवधि नहीं रखी जाती थी। 
  • प्रारम्भ में मनसबदारों को 240 रूपये वार्षिक प्रति सवार वेतन मिलता था किन्तु जहांगीर के काल में यह राशि घटाकर 200 रूपये वार्षिक कर दिया गया। 
  • मनसबदारों का वेतन रूपयों के रूप में निश्चित किया जाता था किन्तु उसकी अदायगी जागीर के रूप में की जाती थी। 
  • शाहजहां के शासनकाल में एक परिवर्तन हुआ कि मनसबदारों के सवार पद में निर्दिष्ट संख्या के अनुपात में भारी कमी आयी। 
  • मनसब आनुवांशिक नहीं होते थे। मनसबदार की मृत्यु या पदच्युति के बाद यह स्वतः समाप्त हो जाता था।

सवार पद के आधार पर मनसबदारों की श्रेणियां -

  • सवार पद के आधार पर 5000 और उससे नीचे के मनसबदारों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया था- 
  1. प्रथम श्रेणी के मनसबदार को जात पद के बराबर सवार (घुड़सवार सैनिकों की संख्या) पद दिया जाता था। जैसे - 5000 जात/5000 सवार। 
  2. द्वितीय श्रेणी के मनसबदारों को - अपने जात पद से कुछ कम या आधे घुड़सवार सैनिक रखने पड़ते थे। जैसे - 5000 जात/3000 घुड़सवार। 
  3. तृतीय श्रेणी के मनसबदार - अपने जात पद के आधे से भी कम घुड़सवार सैनिक रखने पड़ते थे। जैसे - 5000 जात/2000 घुड़सवार।

दाग प्रथा -

  • अकबर ने अपने शासनकाल के 18 वें वर्ष (1574 ई.) में दाग-प्रथा तसहीहा (चेहरा) प्रथा को चलाया। 
  • अकबर ने दाग प्रथा को नया रूप दिया और उसके समय में दो दाग (निशान) लगाया जाने लगा। एक शाही दाग और दूसरा मनसबदार का दाग होता था 
  • इसके लिए अकबर ने दाग-ए-मुहाली नामक एक पृथक विभाग खोला था।

जहांगीर और मनसब -

  • जहांगीर ने एक ऐसी प्रथा चलायी,  जिसमें बिना जात पद बढ़ाये ही मनसबदारों को अधिक सेना रखने को कहा जाता था। इस प्रथा को दुह-अस्पा एवं सिह-अस्पा कहा जाता था।
  • दु-अस्पा में मनसबदारों को अपने सवार पद के दुगुने घोड़े रखने पड़ते थे। सिह-अस्पा में मनसबदारों को अपने सवार पद के तीन गुने घोड़े रखने होते थे। यक्-अस्पा में मनसबदारों को अपने सवार पद के अनुसार केवल एक ही घोड़ा रखना होता था। 
  • अकबर के काल में यह नियम था कि किसी भी मनसबदार का सवार पद उसके जात पद से अधिक नहीं हो सकता था।

शाहजहां और मनसब -

  • शाहजहां के समय में जिन मनसबदारों को अपनी नियुक्ति के स्थान पर जागीर मिली होती थी, उन्हें अपने सवार मनसब का 1/3 घुड़सवार सैनिक, जिनको नियुक्ति स्थान से बाहर सुबे में जागीर मिली थी उन्हें 1/4 तथा भारत से बाहर अथवा उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त के मनसबदार को 1/5 घुड़सवार सैनिक रखने होते थे।

औरंगजेब और मनसब - 

  • औरंगजेब के काल में जब किसी मनसबदार को किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाता था या किसी महत्वपूर्ण अभियान पर जाते समय उसके सवार पद में अतिरिक्त वृद्धि का एक और माध्यम निकाला गया। जिसे मशरूत कहा जाता था।
  •  औरंगजेब के समय में मनसबदारों की संख्या में इतनी वृद्धि हुई कि उन्हें देने के लिए जागीर नहीं बची। इस स्थिति को बेजागिरी कहा गया।
धन्यवाद।

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