महलवाड़ी व्यवस्था
इस पद्धति के अनुसार भूमि कर की इकाई कृषक का खेत नहीं अपितु ग्राम अथवा महल (जागीर का एक भाग) होता था। भूमि समस्त ग्राम सभा की सम्मिलित रूप से होती थी जिसको भागीदारों का समूह कहते थे। ये लोग सम्मिलित रूप से भूमि कर देने के लिए उत्तरदायी होते थे, यद्यपि व्यक्तिगत उत्तरदायित्व भी होता था। यदि कोई व्यक्ति अपनी भूमि छोड़ देता था तो ग्राम समाज इस भूमि को संभाल लेता था। यह ग्राम समाज ही सम्मिलित भूमि (शामलात) तथा अन्य भूमि का स्वामी होता था।
Lord William Bentick |
उत्तर-पश्चिमी प्रान्त तथा अवध (यू.पी.) में भूमि कर व्यवस्था-
उत्तर-पश्चिमी प्रान्त तथा अवध जिसे आजकल उत्तर प्रदेश कहते हैं, अंग्रेजों के अधीन भिन्न-भिन्न समय पर आया। 1801 ई. में अवध के नवाब ने कम्पनी को इलाहाबाद तथा उसके आसपास के प्रदेश जिन्हें अभ्यर्पित जिले कहते थे, दे दिए। द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के पश्चात कम्पनी ने यमुना तथा गंगा के मध्य का प्रदेश विजय कर लिया। इन जिलों को विजित प्रान्त कहते थे। अन्तिम आंग्ल-मराठा युद्ध के पश्चात लॉर्ड हेस्टिंग्ज ने उत्तरी भारत में और अधिक क्षेत्र प्राप्त कर लिए।
हेनरी वेलेजली ने, जो अभ्यर्पित प्रदेश के प्रथम लेफ्टिनेंट गवर्नर थे, जमींदारों तथा कृषकों से सीधे भूमि कर निश्चित कर लिया तथा यह मांग नवाबों की मांग से प्रथम वर्ष में ही 20 लाख रुपए अधिक थी। तीन वर्ष पूरे होते-होते 10 लाख रूपया वार्षिक और बढ़ा दिया गया। इसमें यह भी स्मरण रहे कि नवाब की मांग कमी वाले वर्षों में वास्तविक उपज के अनुसार घट जाती थी परन्तु कम्पनी की मांग ऐसी दृढ़ता से निश्चित की गई थी जो कि भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई थी।
1822 के रेग्यूलेशन -
आयुक्तों के बोर्ड के सचिव होल्ट मैकेंजी ने 1819 ई. के पत्र में उत्तरी भारत में ग्राम समाजों की ओर ध्यान आकर्षित किया तथा यह सुझाव दिया था कि भूमि का सर्वेक्षण किया जाए, भूमि में लोगों के अधिकारों का लेखा तैयार किया जाए, प्रत्येक ग्राम अथवा महल से कितना भूमि कर लेना है, यह निश्चित किया जाए तथा प्रत्येक ग्राम से भूमि का प्रधान अथवा लम्बरदार द्वारा संग्रह करने की व्यवस्था की जाए।
1822 ई. के रेग्यूलेशन-7 द्वारा इस सुझाव को कानूनी रूप दे दिया गया। भूमि कर भूभाटक का 30% निश्चित किया गया जो जमीदारों को देना पड़ता था। उन प्रदेशों में जहां जमींदार नहीं होते थे तथा भूमि ग्राम समाज की सम्मिलित रूप से होती थी, भूमि कर भूभाटक का 95% निश्चित किया गया। सरकार की मांग अत्यधिक होने के कारण तथा संग्रहण में अत्यधिक दृढ़ता होने के कारण यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई।
1833 ई. का रेग्यूलेशन नौ तथा मार्टिन बर्ड की भूमि कर व्यवस्था -
विलियम बैंटिंक की सरकार ने 1822 की योजना की समीक्षा की तथा इस परिणाम पर पहुंची कि इस योजना से लोगों को बहुत कठिनाई हुई है तथा यह अपनी कठोरता के कारण ही टूट गई है बहुत सोच-विचार के पश्चात 1833 के रेग्यूलेशन पारित किए गए जिसके द्वारा भूमि की उपज तथा भूभाटक का अनुमान लगाने की पद्धति सरल बना दी गई। भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि के लिए भिन्न-भिन्न औसत भाटक निश्चित किया गया। प्रथम बार खेतों के मानचित्रों तथा पंजियों का प्रयोग किया गया।
यह नई योजना मार्टिन बर्ड की देखरेख में लागू की गई। उन्हें उत्तरी भारत में भूमि कर व्यवस्था के प्रवर्तक के नाम से स्मरण किया जाता है। इसके अनुसार एक भाग की भूमि का सर्वेक्षण किया जाता था जिसमें खेतों की परिधियां निश्चित की जाती थीं और बंजर तथा उपजाऊ भूमि स्पष्ट की जाती थी। इसके पश्चात समस्त भाग का और फिर समस्त ग्राम का भूमि कर निश्चित किया जाता था। प्रत्येक ग्राम अथवा महल के अधिकारियों को स्थानीय आवश्यकता के अनुसार समायोजन करने का अधिकार होता था। भाटक का 66% भाग राज्य सरकार का भाग निश्चित किया गया और यह व्यवस्था 30 वर्ष के लिए की गई।
इस योजना के अन्तर्गत भूमि व्यवस्था का कार्य 1833 में आरम्भ किया गया। जेम्स टाॅमसन जो 1843 से 1853 तक लेफ्टिनेंट-गवर्नर रहे, के काल में समाप्त किया गया। परन्तु भाटक 66% भूमि कर के रूप में प्राप्त करना भी बहुत अधिक था तथा चल नहीं सका। इसलिए लार्ड डलहौजी ने इसका पुनरीक्षण कर 1855 में सहारनपुर नियम के अनुसार 50% भाग का सुझाव दिया।
दुर्भाग्यवश भूव्यवस्था अधिकारियों ने इस नियम को स्थगित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने इस 50% के अर्थ प्रदेश के भाटक के वास्तविक भाटक के स्थान पर सम्भावित तथा शक्य भाटक लिया जिसके फलस्वरूप कृषक की अवस्था और भी बुरी हो गई जिस कारण इन में से बहुत से लोग 1857 के विद्रोह में सम्मिलित हो गए।
धन्यवाद।
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