मन्दिर स्थापत्य शैलियाँ
धार्मिक स्थापत्य की दृष्टि से मन्दिर वास्तु की कला भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण है। भारत में मन्दिर निर्माण की परम्परा बहुत प्राचीन है। यहाँ मन्दिर निर्माण में अनेक शैलियों का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः विभिन्न काल के शिल्पियों ने मन्दिर स्थापत्य को विभिन्न परिस्थितियों के कारण भिन्न स्वरूप प्रदान किया। बाद में वही स्थापत्य की विशेषता या पहचान हो गई और शिल्प की शैली के रूप में व्यवहार में लायी जाने लगी। अतः मन्दिरों की निर्माण परम्परा को दृष्टि में रखकर ही उसका अनुकरण -अनुसरण किया गया और वह शैली विशेष के रूप में पहचानी गयी।
Temple Architectural Styles |
प्रमुख शैलियाँ
- प्राचीन भारतीय शिल्पशास्त्रों जैसे मानसार, समरांगण-सूत्रधार, अपराजितपृच्छा और मानसोल्लास आदि में मन्दिरों की विभिन्न शैलियों का उल्लेख मिलता है।
- इनमें तीन शैलियाँ प्रमुख हैं –
- नागर शैली
- द्राविड़ शैली
- बेसर शैली
नागर शैली
- उत्तर भारत में मन्दिर स्थापत्य शैली को नागर शैली कहते हैं। यह उत्तर भारत में हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत तक प्रचलित थी। इस शैली का समय सातवीं से तेरहवीं शताब्दी तक माना गया है।
- इसे आर्य शैली, पर्वती शैली (हिमालय क्षेत्र), लाट शैली (गुजरात), कलिंग शैली (उड़ीसा) के नाम से जाना जाता है। नागर शैली की एक उपशैली भूमिज है। भूमिज शैली के उदाहरण मालवा, राजस्थान, गुजरात आदि जगहों से मिलते हैं।
- नागर शैली के मन्दिरों की आधारभूत योजना वर्गाकार होती है। वर्तुलाकार आमलक, वक्र रेखीय शिखर एवं स्वास्तिक आकार की योजना नागर शैली की विशेषता है। शिखर के आधार पर नागर शैली को लैटिना या रेखा प्रसाद, फमसाना एवं बल्लभी प्रकार में विभाजित किया गया है।
- इस शैली के मन्दिर एक विशाल चबूतरे पर स्थित होते थे, जिसमें कोई घुमावदार चहारदीवारी नहीं होती थी। घुमावदार शिखर को गुम्बद कहा जाता है।
- मन्दिर का गर्भगृह शिखर के नीचे स्थित होता है। नागर शैली के मन्दिर आधार से शिखर तक चतुष्कोणीय होते हैं।
- ये मन्दिर ऊँचाई में आठ भागों में बांटे गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं - मूल (आधार), गर्भगृह मसरक (नींव और दीवारों के बीच का भाग), जंघा (दीवार), कपोत (कार्निस), शिखर, गल(गर्दन), वर्तुलाकार आमलक और कुम्भ (शूल सहित कलश)।
द्राविड़ शैली -
- इसका विस्तार कृष्णा से कन्याकुमारी तक तथा कालखण्ड सातवीं से 18 वीं शताब्दी तक थी।
- द्राविड़ शैली की पहचान विशेषताओं में प्राकार (चहारदीवारी), गोपुरम (प्रवेश द्वार), वर्गाकार या अष्टकोणीय गर्भगृह (रथ), पिरामिडनुमा शिखर, मण्डप (नन्दी मण्डप) विशाल संकेन्द्रित प्रांगण तथा अष्टकोण मन्दिर संरचना शामिल था। इस शैली में आमलक एवं कलश के स्थान पर स्तूपिका बनी होती थी।
- इन मन्दिरों में एक जलाशय का सदैव निर्माण किया जाता था। इनके प्रवेश द्वार भव्य होते थे जिन्हें गोपुरम कहते हैं। ये गोपुरम मुख्यतः पांडय शासकों की विशेषता हैं। इन मन्दिरों के चारों ओर चहारदीवारी होती थी।
- इस शैली के मन्दिर काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते थे। प्रांगण में छोटे-बड़े मन्दिर, कक्ष तथा विशाल जलाशय होते हैं। इस शैली के मन्दिर में चार से अधिक पाश्र्व होते हैं।
- पल्लवों ने द्राविड़ शैली को जन्म दिया, चोल काल में इसने ऊँचाइयाँ हासिल की तथा विजयनगर काल के बाद से यह ह्रासमान हुई। तंजौर का बृहदेश्वर मन्दिर इस शैली का सर्वोत्तम मन्दिर है।
बेसर शैली -
- नागर और द्राविड़ शैली के मिश्रित रूप को वेसर या बेसर शैली कहते हैं। इस शैली के मन्दिर विन्धय पर्वतमाला से कृष्णा नदी के बीच निर्मित हैं।
- इस शैली का उद्भव बौद्ध चैत्यों से हुआ। इन मन्दिरों का निर्माण सातवीं से आठवीं शताब्दी के बीच में शुरू हुआ जो कि 12वीं शताब्दी तक चला।
- बेसर शैली को चालुक्य शैली भी कहते हैं। उत्तरी कर्णाट एवं दक्षिणी कर्णाट इसकी उपशैली हैं।
- इस शैली में विमान शिखर छोटा एवं रेखाकृत, छत गजपृष्ठाकार, फैले कलश, मूर्तियों का आधिक्य, अलंकरण परम्परा का बाहुल्य, प्रदक्षिणापथ का अभाव भी इनकी विशेषता है।
- बेसर शैली के विकास का श्रेय मुख्यतः चालुक्यों व होयसाल शासकों को जाता है।
- बेसर शैली में शिखर को नागर शैली की तरह, मण्डप को द्राविड़ शैली के अनुसार बनाया गया है। बेसर शैली के मन्दिर, मुलायम व कठोर पत्थरों के मिश्रण से बने हैं।
- बेसर शैली के प्रमुख मन्दिरों में वृंदावन का वैष्णव मन्दिर (जिसमें गोपुरम है), ऐहोल का मन्दिर, बेलूर का द्वार समुद्र मन्दिर, सोमनाथपुरम का मन्दिर, एलोरा का कैलाशनाथ मन्दिर आदि प्रमुख हैं। कर्नाटक का लाड़खां मन्दिर, जो भगवान शिव को समर्पित है और अपनी चपटी छत के लिए प्रसिद्ध है। इसकी आकृति लकड़ी के मन्दिर की तरह प्रतीत होती है, बेसर शैली का उदाहरण है।
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