भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ

कैबिनेट मिशन के प्रावधानों के तहत भारत में अन्तरिम सरकार का गठन तथा देश के लिए भावी संविधान को तैयार करने के लिए संविधान सभा के गठन का निर्णय लिया गया। इस निर्णय के तहत जुलाई 1946 ईस्वी में संविधान सभा के निर्माण के लिए चुनाव करवाए गए व 9 दिसंबर 1946 ईस्वी को सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में इसकी प्रथम बैठक हुई। बाद में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद इस सभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। गांधीजी इसके सदस्य नहीं बने तथा पंडित नेहरू व पटेल अन्तरिम सरकार के प्रधानमंत्री व गृहमंत्री की हैसियत से इसमें सम्मिलित हुए। तीन वर्षों की अवधि में इस संविधान सभा ने संविधान का निर्माण कर दिया। 21 फरवरी, 1948 ईस्वी को संविधान का प्रारूप तैयार हुआ और इस पर अध्यक्ष के रुप में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने 26 नवम्बर, 1949 ईस्वी को हस्ताक्षर कर दिए। मूल रूप से इस संविधान में 395 धाराएँ, जो कि 22 भागों में विभक्त थी और 8 अनुसूचियाँ थीं। 26 जनवरी, 1950 ईस्वी को संविधान स्वतन्त्र भारत में लागू हुआ।
डॉ राजेन्द्र प्रसाद
Dr Rajendra Prasad 

संविधान की विशेषताएं

प्रस्तावना -

संविधान की प्रस्तावना द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि भारत का संविधान भारत की जनता द्वारा जनता के लिए निर्मित किया गया है। इस संविधान के लागू होने से भारत एक सर्वप्रभुत्व-सम्पन्न देश बन गया तथा इस संविधान का प्रमुख उद्देश्य भारत में धर्म-निरपेक्ष समाजवाद, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य स्थापित करना व सभी को न्याय, स्वतन्त्रता एवं समानता प्रदान कर बन्धुत्व की भावना का विकास करना है।

लिखित एवं निर्मित संविधान -

भारतीय संविधान के प्रत्येक भाग को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। संविधान सभा के अधिवेशनों में इसका प्रारूप तैयार कर, इस पर विचार-विमर्श कर इसे अन्तिम तौर पर स्वीकार किया गया।

संविधान का अत्यधिक बड़ा होना -

भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। इसके विशाल होने का प्रमुख कारण यह है कि इसमें केन्द्र व राज्य सरकारों की कार्य प्रणालियाँ, नागरिकों के अधिकार, नीति निर्देशक तत्वों, संशोधन की व्यवस्था आदि की बहुत अधिक चर्चा की गई है।

संसदात्मक शासन प्रणाली -

संविधान के अनुसार, भारत में संसदात्मक शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई है। इस व्यवस्था के अनुसार केन्द्र व राज्यों में जनता द्वारा चुने गए बहुमत दल के प्रधान (प्रधानमन्त्री व मुख्यमन्त्री) ही वास्तविक शासन के प्रधान होते हैं, जबकि राष्ट्रपति एवं राज्यपाल नाममात्र के संवैधानिक प्रधान होते हैं। यह मंत्रि-परिषद की सलाह से कार्य करते हैं। संसद तथा विधानमण्डल अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी होती है।

संघात्मकता एवं एकात्मकता का मिश्रण -

भारतीय संविधान में संघात्मक एवं एकात्मक दोनों तरह के गुण पाए जाते हैं। संविधान के प्रावधानों के अनुसार इसमें संघात्मक व्यवस्था है और केन्द्र सरकार को मजबूत बनाने के लिए उसे पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं, जो इसकी एकात्मक व्यवस्था को प्रदर्शित करते हैं, परन्तु इसके साथ ही राज्य सरकारों को आन्तरिक प्रशासन, विधि-निर्माण एवं न्यायपालिका के क्षेत्र में स्वायत्तता इस संविधान को संघात्मक बना देते हैं। 

मूल अधिकारों का उल्लेख -

सरकार की तानाशाही प्रवृत्ति से देश के नागरिकों को बचाने के उद्देश्य से संविधान में मूलभूत अधिकारों की व्यवस्था की गई है। इन अधिकारों का उल्लेख संविधान के तीसरे भाग में धारा 12 से 35 तक में किया गया है। केवल आपातकाल में ही इन अधिकारों को निलम्बित किया जा सकता है।

नागरिकों के कर्त्तव्यों का उल्लेख -

अधिकारों के साथ-साथ देश के नागरिकों के लिए भी देश के प्रति कुछ कर्त्तव्यों का निर्धारण भारतीय संविधान में किया गया है, जो निम्नलिखित हैं -
  • संविधान का पालन। 
  • राष्ट्रीय आदर्शों का पालन। 
  • भारत की एकता व अखंडता के प्रति आस्थावान होना तथा इसकी रक्षा करना। 
  • देश में भाई-चारे की भावना का विकास। 
  • देश की संस्कृति का सम्मान व सुरक्षा। 
  • देश के प्राकृतिक वातावरण की समृद्धि में योगदान तथा प्राणिमात्र के प्रति दया की भावना रखना। 
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, ज्ञान एवं सुधार की भावना विकसित करना। 
  • सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा। 
  • देश की सेवा एवं रक्षा के लिए तत्पर रहना। 
  • राष्ट्र के निरन्तर विकास के लिए प्रयत्न करना।

नीति निर्देशक तत्व -

संविधान के चौथे भाग में इनका वर्णन किया गया है, जिसका उद्देश्य राज्य को कल्याणकारी बनाना है। इनके द्वारा राज्य में ऐसी सामाजिक व्यवस्था की गई है, जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करें, भरसक कार्य साधक के रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक-कल्याण की उन्नति का प्रयास करे। ये तत्व मुख्यतः राज्य के आर्थिक, समाजिक, प्रशासनिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा व्यवस्था से सम्बन्धित हैं।

इकहरी नागरिकता की व्यवस्था -

भारतीय सविधान संघात्मक होते हुए भी इसमें इकहरी नागरिकता की व्यवस्था की गई है। भारत की नागरिकता जन्म, निवास या स्वेच्छा से ग्रहण करने से प्राप्त हो सकती है। ऐसी व्यवस्था करने का उद्देश्य देश में बसने वाली विभिन्न जातियों, धर्मों के व्यक्तियों के मध्य समानता एवं एकता की भावना को बढ़ाकर देश की एकता व अखण्डता को बनाए रखना है।

संविधान में संशोधन की व्यवस्था -

भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। यह संशोधन संसद में बहुमत द्वारा, विशिष्ट बहुमत द्वारा तथा राज्य की विधानमण्डलों की सहमति से किया जा सकता है। साथ ही आपातकाल की स्थिति में संविधान का स्वरूप अपने आप संघात्मक से एकात्मक हो जाता है। इस प्रकार संविधान पर्याप्त रूप से लचीला बनाया गया है परन्तु साथ ही यह अत्यधिक कठोर है, क्योंकि व्यावहारिक रूप से संशोधन की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है।

अनेक इतिहासकारों ने इसे 'भानुमति का पिटारा' और 'गोंद और कैंची' के खिलवाड़ का परिणाम बताया है, एम. वी. पायली ने लिखा है, "भारतीय संविधान कार्य करने लायक दस्तावेज है, यह आदर्शों एवं वास्तविकताओं का मिश्रण है, इसने सभी लोगों को एक साथ रहने एवं एक नए व स्वतन्त्र भारत के निर्माण का आधार प्रदान किया है।"
धन्यवाद

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