चार्ल्स प्रथम और पार्लियामेन्ट 

जेम्स प्रथम की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र चार्ल्स प्रथम राजा हुआ। चार्ल्स प्रथम के शासनकाल में राजा और पार्लियामेन्ट के मध्य संघर्ष चरम सीमा पर पहुंच गया। 

चार्ल्स प्रथम और पार्लियामेन्ट
England 

संघर्ष के कारण 

  • चार्ल्स प्रथम राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास रखता था और संसद का नियन्त्रण राजसत्ता पर स्वीकार करने को तैयार नहीं था।
  • राजा के प्रति पार्लियामेन्ट संदेह रखती थी कि चार्ल्स कैथोलिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता देना चाहता था।
  • राजा को पार्लियामेन्ट धन देने को तैयार नहीं थी। करारोपण तथा धन के व्यय पर वह नियन्त्रण रखना चाहती थी।
  • राजपरिवार के व्यक्तियों का स्पेन तथा फ्रांस जैसे कैथोलिक देशों से विवाह सम्बन्धों के पार्लियामेन्ट विरुद्ध थी। कैथोलिक देशों के विरुद्ध तीस वर्षीय युद्ध में वह प्रोटेस्टेन्ट पक्ष की सहायता करना चाहती थी।
  • चार्ल्स के सलाहकार और मन्त्री लाड और वेण्टवर्थ पार्लियामेन्ट की दृष्टि में अयोग्य थे और वह उनको हटाना चाहती थी।
  • किसी व्यक्ति को बन्दी बनाने के राजा को प्राप्त अधिकार को पार्लियामेन्ट स्वीकार नहीं करती थी।

प्रथम पार्लियामेन्ट (1625 ई०)

तीसवर्षीय युद्ध में डेनमार्क के राजा को चार्ल्स 3 लाख 60 हजार पौण्ड की सहायता का वचन दे चुका था। चार्ल्स ने पार्लियामेन्ट से 7 लाख पौण्ड स्वीकृत करने के लिए कहा। चार्ल्स को पार्लियामेन्ट ने केवल एक वर्ष के लिए टनेज और पौण्डेज वसूलने का अधिकार प्रदान किया। केवल 1 लाख 40 हजार पौण्ड युद्ध के लिए स्वीकृत किए। पार्लियामेन्ट इस धन के व्यय पर भी नियन्त्रण रखना चाहती थी। पार्लियामेन्ट को राजा ने भंग कर दिया।

द्वितीय पार्लियामेन्ट ( 1626 ई० )

चार्ल्स को अगले ही वर्ष पार्लियामेन्ट फिर बुलानी पड़ी। अपने वचन के अनुसार वह डेनमार्क के राजा को सहायता भेजना चाहता था। धन स्वीकार करने से पहले पार्लियामेन्ट ने युद्ध की कुव्यवस्था की शिकायत की और जांच की मांग की।राजा के मन्त्री बकिंघम पर पार्लियामेन्ट ने महाभियोग चलाने की तैयारी भी की। चार्ल्स ने रूष्ट होकर पार्लियामेन्ट को भंग कर दिया।

तृतीय पार्लियामेन्ट (1628 ई०)

युद्ध के लिए धन प्राप्त करना ही इसका उद्देश्य था। पिछले दो वर्षों में मुफ़्त भेंट के रूप में चार्ल्स ने बलपूर्वक काउन्टियों से धन वसूल किया था। इसका विरोध होने पर उसने बलपूर्वक ऋण लेना आरम्भ कर दिया। जजों ने इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया। जजों को चार्ल्स ने पदों से हटा दिया और ऋण वसूलना जारी रखा। सैनिकों को उसने निर्धन व्यक्तियों के घरों में ठहराया जिससे यह वर्ग भी उसका विरोधी हो गया। आर्थिक संकट इन सब कार्यों के बाद भी बना रहा। अतः चार्ल्स ने बाध्य होकर पार्लियामेन्ट को बुलाया। पार्लियामेन्ट ने अपनी मांगों को पिम के नेतृत्व में चार्ल्स के समक्ष एक अधिकार पत्र के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी माँगे निम्नलिखित थीं –

  • पार्लियामेन्ट की स्वीकृति के बिना कर नहीं लगाया जायेगा, न बलपूर्वक ऋण, भेंट ली जाएगी।
  • किसी व्यक्ति को बिना मुकद्दमा चलाये बन्दी नहीं बनाया जायेगा।
  • नागरिकों के घरों में सैनिकों को नहीं ठहराया जायेगा।
  • सैनिक कानून शान्ति काल में लागू नहीं किया जायेगा।

आर्थिक संकट के कारण चार्ल्स ने विवश होकर अधिकार पत्र को स्वीकार कर लिया। राजा की शक्तियों को इसने सीमित कर दिया और जिन अधिकारों के लिए पार्लियामेन्ट संघर्ष कर रही थी, उन्हें पुष्ट कर दिया।

राजा और पार्लियामेन्ट के सम्बन्धों में इसके बाद भी सुधार नही हुआ। इस बीच बकिंघम की हत्या हो गई। राजा पर पार्लियामेन्ट ने आरोप लगाया कि अधिकार पत्र का वह पालन नहीं कर रहा था। चार्ल्स ने क्रोधित होकर पार्लियामेन्ट को भंग कर दिया। सभा ने भंग होने से पहले तीन प्रस्तावों को स्वीकार किया –

  • पार्लियामेन्ट की राय के बिना धर्म में परिवर्तन
  • पार्लियामेन्ट की राय के बिना टनेज, पौण्डेज वसूल करना
  • नाजायज करों को देना सभी देशद्रोहिता के कार्य माने जायेंगे।

चार्ल्स का व्यक्तिगत शासन

चार्ल्स ने तृतीय पार्लियामेन्ट को भंग करने के बाद ग्यारह वर्ष तक बिना पार्लियामेन्ट के शासन किया। राजा को प्रशासन कार्यों के लिए धन की आवश्यकता थी। उसने इसके लिए अनुचित साधनों को अपनाया और पुराने कानूनों को पुनर्जीवित करके धन वसूल किया। चार्ल्स ने धन प्राप्त करने के लिए नाइट पद प्रथा पुनः आरम्भ की, टनेज और पौण्डेज की वसूली की, जहाज कर को लगाया और नौसेना को दृढ़ किया। उसने विभिन्न न्यायालयों से अपने विरोधियों को दण्ड दिलाया। सम्भवतया उसका शासन इस प्रकार चलता रहता लेकिन लाड की धार्मिक नीति ने संकट उत्पन्न कर दिया। लाड ने प्रथम प्रार्थना को पढ़ना अनिवार्य किया। इसके बाद दूसरी प्रार्थना पुस्तक को पढ़ना अनिवार्य कर दिया। प्रोटेस्टेन्टों में कैथोलिक धर्म को फिर से स्थापित किये जाने का भय होने लगा। प्रार्थना पुस्तक पढ़ने से जिन पादरियों ने इन्कार किया, उन पर अत्याचार किये गये। स्कॉटलैण्ड में इसकी गम्भीर प्रतिक्रिया हुई। स्कॉटलैण्ड के विद्रोह का दमन करने के लिए चार्ल्स ने सेना भेजी लेकिन यह सेना पराजित हो गई। इसे प्रथम विशप युद्ध कहा गया। युद्ध बारबिक की सन्धि के द्वारा समाप्त हो गया और युद्ध का व्यय देना चार्ल्स ने स्वीकार किया। चार्ल्स को धन प्राप्त करने के लिए पार्लियामेन्ट को बुलाना पड़ा।

लघु पार्लियामेन्ट (1640 ई०)

पार्लियामेन्ट ने स्काट लोगों से समझौता करने, जहाज कर तथा बलात् ऋणों की वसूली को समाप्त करने की माँग की। चार्ल्स ने इस पर पार्लियामेन्ट को भंग कर दिया। उसका कहना था कि राजा की नीति में हस्तक्षेप करने का पार्लियामेन्ट को अधिकार नहीं था। इस स्थिति में स्काट लोगों ने पुनः युद्ध आरम्भ कर दिया। इसे द्वितीय विशप युद्ध कहा गया है। इस युद्ध में पुनः राजा की पराजय हुई और सन्धि के अनुसार उसने सैनिक व्यय के लिए 25 हजार पौण्ड प्रति माह देना स्वीकार किया। राजा को बाध्य हो पार्लियामेन्ट बुलानी पड़ी। 

पाँचवीं पार्लियामेन्ट (1640 ई०)

चार्ल्स की पाँचवीं पार्लियामेन्ट को दीर्घ पार्लियामेन्ट कहा गया। 1660 ई० में पार्लियामेन्ट ने स्वयं को समाप्त किया। इस पार्लियामेन्ट का इतिहास में विशेष महत्व है। राजा के मन्त्रियों पर पार्लियामेन्ट ने महाभियोग चलाया, उन्हें मृत्युदंड दिया। संविधान की उसने व्याख्या की और कानून बनाये।

धन्यवाद 

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