स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्वामी दयानन्द सरस्वती का वास्तविक नाम मूलशंकर था। उनका जन्म 1824 ई० में गुजरात की मौरवी रियासत में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता अम्बाशंकर स्वयं वेदों के प्रकाण्ड विद्वान थे। मूलशंकर को बाल्यकाल से ही वैदिक वाङ्मय तथा न्याय दर्शन का अध्ययन कराया गया था। 1845 ई० में उन्होंने गृह त्याग दिया और साधु जीवन में उन्होंने 1845 ई० से 1860 ई० तक भारत का परिभ्रमण किया। उन्हें स्वामी परमानन्द का शिष्यत्व प्राप्त हुआ और उन्होंने ही उनका नाम दयानन्द रखा।1860 ई० में उन्होंने मथुरा के एक ब्राह्मण बिरजानन्द से शिक्षा ग्रहण की और यहाँ उन्होंने पाणिनी का व्याकरण, पतंजलि का महाभाष्य, वेदान्त सूत्र आदि ग्रंथों का अध्ययन किया। 1874 ई० में उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश की रचना की। 1875 ई० में वे बम्बई आये और यहाँ प्रार्थना समाज से प्रभावित होकर उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। 1877 ई० में वह पंजाब गये और लाहौर में आर्य समाज की स्थापना की। इसके बाद आर्य समाज के सिद्धान्तों का व्यापक प्रचार किया गया। 1881 ई० में उन्होंने गौ-रक्षणी सभा की स्थापना की। 1883 ई० में अजमेर में उनकी मृत्यु हो गई।

Swami Dyanand Saraswati
Swami Dyanand Saraswati 

विचार एवं कार्य -

स्वामी दयानन्द सरस्वती हिन्दू समाज का पुननिर्माण प्राचीन भारतीय आदर्शों के आधार पर करना चाहते थे। उनके विचार निम्नलिखित थे -

  • वे शिक्षा प्रणाली में सुधार चाहते थे। उन्होंने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली को आदर्श बताया। 
  • उन्होंने हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता का घोर विरोध किया। उनका मत था कि जाति का आधार कर्म है जन्म नहीं।
  • उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया और सत्यार्थ प्रकाश में वैदिक धर्म की श्रेष्ठता स्थापित की । 
  • उन्होंने समाज सुधार के लिए नारी शिक्षा पर जोर दिया। समाज की अनेक कुरीतियों में से बाल- विवाह को समाप्त करने के लिए उन्होंने कार्य किया और विधवा-विवाह का समर्थन किया। 
  • इन सामाजिक तथा धार्मिक सुधारों के द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दू समाज में आत्मविश्वास की भावना जाग्रत की।

राजनीति के क्षेत्र में योगदान -

उन्होंने स्वराज का समर्थन किया। उनके अनुसार विदेशी राज कितना भी अच्छा क्यों न हो वह स्वराज का स्थान कभी नहीं ले सकता। उन्होंने देशप्रेम, स्वदेशी, हिन्दी, आत्मनिर्भरता के लिए विशेष रूप से कार्य किया। राष्ट्रीय आन्दोलन के अनेक नेता बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, गोपालकृष्ण गोखले आर्य समाज से प्रभावित थे। वास्तव में, आर्य समाज के आन्दोलन में राष्ट्रीय भावना की तीव्रता थी और इससे भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माण में सहायता मिली। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अन्तर्राष्ट्रीय पक्ष की भी उपेक्षा नही की। उनके संदेश विश्व के समस्त मानव समाज के लिये थे। उन्होंने सारे संसार को वेद का यही संदेश दिया। संसार के सारे लोग सुखी हो वे सबका कल्याण हो कोई भी रोगी और दुखी न रहे। (सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे भवन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुख भाग भवेत) 

धार्मिक सिद्धान्त -

वेद ईश्वरीय हैं और समस्त ज्ञान का स्रोत हैं। वेदों का अध्ययन आर्यों का परम धर्म है। ईश्वर निर्गुण, निराकार, सर्वशक्तिमान और सृष्टि कर्ता है। सत्य को गहण करना चाहिए और असत्य का त्याग करना चाहिए। अविद्या का नाश और विद्या का संवर्द्धन करना चाहिए। संसार का उपकार करना आर्य लोगों का मुख्य उद्देश्य है। सार्वजनिक हित के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करना चाहिए सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति समझना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती का कर्मवाद में विश्वास था। वे पुर्नजन्म में भी विश्वास रखते थे। जीवन का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष ज्ञान नैतिकता, ब्रह्मचार्य, सत्संग, विचारों की शुद्धता तथा पुण्य कर्मों से प्राप्त होता है। उन्होंने यज्ञों को पुनः प्रचलित किया क्योंकि यज्ञ प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी थे लेकिन उन्होंने कर्मकाण्ड, अंधविश्वास और रूढ़िवादिता का विरोध किया। उन्होंने मूर्ति-पूजा, अनुष्ठानों, श्राद्ध, तीर्थयात्राओं का विरोध किया। उनका नारा था वेदों की ओर वापस चलो। उनका विश्वास था कि वेदों की पुनर्स्थापना से हिन्दु धर्म कुरीतियों से मुक्त हो जायेगा।

सामाजिक कार्य -

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पुरोहितवाद का विरोध किया। उन्होंने ब्राह्मण की सर्वोच्चता का खण्डन किया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को वेदों का अध्ययन करने तथा मोक्ष पाने का अधिकार है। सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने अस्पृश्यता, जाति प्रथा, बाल विवाह का विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाहों का समर्थन किया। आर्य समाज आन्दोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसने स्त्रियों तथा शूद्रों को वेदों का अध्ययन करने तथा उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया। वास्तव में, कोई ऐसा अन्य सामाजिक तथा धार्मिक सुधार आन्दोलन नहीं हुआ जिसने हिन्दु समाज और धर्म को इतनी गहनता से प्रभावित किया हो। 

शुद्धि आन्दोलन -

आर्य समाज का दूरगामी तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन शुद्धि आन्दोलन था। इस आन्दोलन का उद्देश्य यह था कि जो हिन्दू बलपूर्वक या प्रलोभन द्वारा मुसलमान या ईसाई बना लिये गये थे। और वे अब पुनः हिन्दू समाज में वापस लौटना चाहते थे उनकी शुद्धि करके उन्हें पुनः हिन्दू समाज व धर्म में प्रवेश दिया जाये। इस आन्दोलन के द्वारा लाखों ईसाइयों और मुसलमानों को पुनः हिन्दू बनाया गया। इस क्रान्तिकारी उपाय द्वारा पूर्व हिन्दुओं को पुनः हिन्दू बनने का अवसर प्राप्त हुआ।

शिक्षा के क्षेत्र में देन -

आर्य समाज की शिक्षा क्षेत्र में भी देन अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस आन्दोलन में शिक्षा पर काफी जोर दिया गया लेकिन इसका शिक्षा कार्यक्रम रूढ़िवादी या प्रतिक्रियावादी नहीं था। इसमें अंग्रेजी ज्ञान तथा शिक्षा को अपनाया गया और अनेक नगरों में डी0ए0वी0 कॉलेजों की श्रृंखला स्थापित की गई। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया। इस प्रकार हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की सम्भावना आर्य समाज ने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दी थी।

धन्यवाद 

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