भक्ति आन्दोलन की विशेषताएँ
समस्त उत्तर भारत तथा महाराष्ट्र में जो भक्ति आन्दोलन 14वीं तथा 15वीं शताब्दियों में फैला उसने संतों के नवीन वर्ग को जन्म दिया था। इस आन्दोलन का आरम्भ रामानन्द ने किया था लेकिन संतों ने जिन भावनाओं को व्यक्त किया वे कबीर तथा नानक के रूप में अधिक शक्तिशाली ढंग से व्यक्त हुई। इन संतों ने निर्गुण ब्रह्मा की आराधना पर जोर दिया और हिन्दू मुस्लिम समाजों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास भी किया। इन्होंने भक्ति के क्षेत्र में रहस्यवादी धारणा को स्थापित किया और इससे मुस्लिम सूफियों के साथ भी सामंजस्य स्थापित किया।
Bhakti Movement |
भक्ति आन्दोलन के निर्गुणमार्गी संतों की शिक्षाओं तथा उनके भक्ति के स्वरूप में कुछ सामान्य विशेषताएँ थीं जो इस प्रकार हैं-
आडम्बर विहीन सरल धर्म -
इन संतों ने सरल निर्गुण एकेश्वरवाद का उपदेश दिया। उनके इस धर्माचरण में कर्मकाण्ड या शास्त्रों के अध्ययन का कोई स्थान नहीं था। इसमें पुरोहित की भी कोई आवश्यकता नहीं थी। इसमें ईश्वर के स्मरण मात्र पर जोर दिया गया था। इसमें जीवन की सादगी तथा आचरण की पवित्रता तथा ईश्वर के प्रति निष्ठा का उपदेश दिया गया था।
मूर्ति पूजा का विरोध -
निर्गुण मार्गी संतों ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और ईश्वर को निर्गुण निराकार तथा सर्वव्यापी माना। इस अवधारणा से वे सूफियों के निकट आ गये। कबीर ने तो राम को निर्गुण ब्रह्म माना और कहा "दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना राम नाम का मरम न जाना"। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म के मर्म अर्थात रहस्य जानने पर जोर दिया।
एकेश्वरवाद -
संतों ने बहुदेववाद को त्याग कर एकेश्वरवाद में विश्वास प्रकट किया। उनका यह एकेश्वरवाद किसी एक धर्म या सम्प्रदाय के बंधन में नहीं था। उन्होंने राम और रहीम को एक कहा।
मनुष्य मात्र की समानता -
संतों ने मनुष्य मात्र की समानता का सिद्धान्त स्थापित किया। उन्होंने जाति-पाँति, ऊँच-नीच का विरोध किया। उनका कहना था कि भक्ति के द्वारा कोई भी व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। त्याग, निष्ठा तथा भक्ति के द्वारा भक्त ब्रह्म से एकाकार कर सकता है। उनकी इन शिक्षाओं का दलित तथा निम्न वर्गों पर गहरा प्रभाव पड़ा। रामानन्द ने कबीर और रविदास को शिष्य बनाया तथा गोसाई विट्ठलनाथ ने रसखान को उपदेश दिया। इस प्रकार इन संतों ने जाति व धर्म के अन्तर को ही अस्वीकार कर दिया।
गुरु का महत्व -
इन संतों ने भक्ति मार्ग पर चलने के लिए गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक बताया। ईश्वर सबके हृदयों में निवास करता है। लेकिन सांसारिक मोहमाया को नष्ट करके गुरु ईश्वर के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है। अतः बिना गुरु के ज्ञान नहीं हो सकता। कबीर ने तो गुरु को गोविन्द से ऊँचा स्थान दिया क्योंकि गुरु ने ही गोविन्द का ज्ञान कराया है।
हिंदू मुस्लिम एकता -
संतों ने सामाजिक समन्वय का कार्य भी किया। उनका उद्देश्य हिन्दू और मुसलमानों में संघर्ष के स्थान पर सहयोग स्थापित करना था। उन्होंने दोनों के दोषों को सामने रखा और उनकी आलोचना की। कबीर इस मामले में अधिक स्पष्ट वक्ता थे। उनका कहना था कि ईश्वर तो सर्वव्यापी है वह न तो मूर्ति में है और न मस्जिद में। नानक और रविदास ने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य किया।
सन्यास का विरोध -
संतों ने त्यागपूर्ण जीवन का उपदेश दिया था लेकिन वे संन्यास के पक्ष में नहीं थे। उनकी शिक्षा थी कि मनुष्य अपने पारिवारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए ईश्वर की उपासना करे। कबीर ने अपने पारिवारिक व्यवसाय जुलाहे का कार्य करते हुए धार्मिक जीवन बिताया था। उन्होंने परिवार के साथ-साथ श्रम की प्रतिष्ठा भी स्थापित की थी।
धार्मिक सहिष्णुता -
संतों ने सभी धर्मों की आधारभूत एकता की स्थापना की और विभिन्न धर्मों को ईश्वर तक पहुँचने के पृथक मार्ग बताये। उन्होंने शिक्षा दी कि राम रहीम और कृष्ण करीम सब उसी परमब्रह्म के नाम थे। इसका प्रभाव यह हुआ कि धार्मिक कट्टरता कम हुई और लोगों में धार्मिक सहिष्णुता की भावना उत्पन्न हुई। इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि हिंदुओं का मुसलमान बनना रुक गया। अब हिन्दू समाज में दलितों तथा निम्न वर्गों को सामाजिक तथा धार्मिक समानता प्राप्त हो गई थी। अब हिन्दू समाज में रहकर वे उपासना तथा मोक्ष के अधिकारी बन गये थे।
निम्न वर्गों का उत्थान -
भक्ति आन्दोलन के कारण हिन्दू समाज की निम्न जातियों को ऊपर उठने का अवसर प्राप्त हुआ। रामानन्द के बारह शिष्य थे। उनमें कई निम्न जातियों के थे जैसे धन्ना जाट, सेना नाई, रविदास चमार। उन्होंने मुसलमान कबीर को भी अपना शिष्य बनाया था। इन निम्न जाति के संतों ने सरस वाणी में भक्ति काव्यों की रचना की। इस प्रकार भक्ति आन्दोलन ने सामाजिक सुधार का कार्य किया।
क्षेत्रीय भाषाओं में साहित्य निर्माण -
भक्ति आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण परिणाम क्षेत्रीय भाषाओं में साहित्य का निर्माण था। इन संतों ने अपने भक्ति गीतों के लिए स्थानीय भाषा को अपनाया। नानक ने पंजाबी, कबीर तथा नामदेव ने हिन्दी, मीरा ने राजस्थानी, नरसी मेहता ने गुजराती, जायसी व तुलसीदास ने अवधी भाषाओं को अपनाया। हिन्दी साहित्य में यह भक्ति काव्य का काल स्वर्ण युग माना जाता है।
धन्यवाद
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