कुंभलगढ़ दुर्ग 

कुंभलगढ़, जिसे कुंभलमेर भी कहते हैं, उदयपुर से लगभग 90 किलोमीटर और नाथद्वारा से करीब 40 किलोमीटर उत्तर में समुद्र सतह से 1082 मीटर ऊंची अरावली की पहाड़ी पर स्थित है। दुर्ग के कुछ पहले केलवाड़ा नामक कस्बा आता है, जहां गढ़ी के भीतर बांणमाता का प्रसिद्ध मन्दिर है। आगे नाले के नजदीक ही करीब 200 मीटर की चढ़ाई के बाद किले का पहला दरवाजा आरेठपोल है। यहां से डेढ़ किलोमीटर आगे एक और द्वार हल्लापोल है। फिर आता है किले का मुख्य द्वार हनुमानपोल, जहां हनुमान की मूर्ति है। आगे विजयपोल दरवाजा आता है। यहां से भीतरी किले के स्मारकों का सिलसिला शुरू हो जाता है।

Kumbhalgarh fort
Kumbhalgarh fort

मेवाड़ के शासक महाराणा कुंभा ने इस दुर्ग का निर्माण कराया था इसलिए इसे कुंभलगढ़ नाम मिला। पता चलता है कि कुंभा ने दुर्ग के लिए जिस स्थान को चुना वहां मौर्य सम्राट अशोक के दूसरे पुत्र सम्प्रति के बनवाए दुर्ग के अवशेष पहले से मौजूद थे। सम्प्रति जैन धर्म का अनुयायी था, इसलिए दुर्ग में कुछ प्राचीन जैन मन्दिर भी हैं। कुंभा ने इस दुर्ग को मेर शासक से हासिल किया था, इसलिए यह दुर्ग कुंभलमेर के नाम से भी जाना जाता है। कुंभा ने पुराने ध्वंसावशेषों पर नये दुर्ग की नींव 1448 ई० में रखी। दुर्ग के निर्माण में दस साल लगे और यह कार्य 1458 ई० में पूरा हुआ। दुर्ग का निर्माण कुंभा के प्रमुख शिल्पी और वास्तुविद्या के पंडित मंडन की देखरेख में सम्पन्न हुआ ।

कुंभा एक महान वास्तु निर्माता था। मेवाड़ की रक्षा के लिए राणाओं ने जो 84 किले बनवाए उनमें से 32 किलों का निर्माण अकेले कुंभा ने कराया। उसने चित्तौड़ की दीवारों को मजबूत किया, पुराने महलों की मरम्मत करवाई और वहां एक भव्य विजय-स्तम्भ का निर्माण कराया।

Kumbhalgarh fort
Kumbhalgarh fort 

कुंभलगढ़ मिले-जुले गिरीदुर्ग व वनदुर्ग का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। पर्वतमालाओं की गोद में बसा होने के कारण यह सही मायने में एक नैसर्गिक दुर्ग है। चित्तौड़ का किला समतल मैदान में एक विशाल पहाड़ी पर स्थित हैं, इसलिए इसे शत्रुसेना द्वारा आसानी से घेरा जा सकता था। मगर कुंभलगढ़ अनियमित आकार की कई पहाड़ियों से घिरा हुआ है, और इन्हें लगभग 35 किलोमीटर लंबी विशाल दीवार से जोड़ दिया गया है। दीवार की चौड़ाई सात मीटर है और इसका प्राकार (ऊपरी हिस्सा) इतना चौड़ा है कि उस पर तीन-चार घुड़सवार आसानी से चल सकते हैं। दीवार में जगह-जगह ऊंचे द्वार और ढलान पर विशेष प्रकार के बुर्ज बने हुए हैं। बुर्जों का बाहरी ढ़ाचा आधे घड़े  (कुंभ) की शक्ल का है, इसलिए शत्रु उन पर सीढ़ी टिकाकर दीवार के ऊपर नहीं पहुंच सकता।

कुंभलगढ़ दुर्भेद्य था, इसलिए जब-जब चित्तौड़ और उदयपुर में असुरक्षा की स्थिति पैदा हुई, तब-तब यह दुर्ग मेवाड़ के राजपरिवार की शरणस्थली बन गया। यहां सबसे ऊंचे शिखर पर बने छोटे दुर्ग कटारगढ़ में राजपरिवार की सुविधा और सुरक्षा के लिए सभी साधन मुहैया थे- झाली महल, बादल महल, तालाब, तोपखाना, कैदीघर, अन्नागार, अस्तबल और मन्दिर। सबसे ऊपर बना कुंभा महल सादगीपूर्ण है। इसकी छत पर चित्र बने हैं। द्वार औसत आदमी की ऊंचाई से छोटे हैं। महल में छोटे-छोटे झरोखे हैं, जिनसे दूर-दूर की नैसर्गिक शोभा देखते ही बनती है।

कुंभलगढ़ दुर्ग के साथ एक प्रणय-कथा भी जुड़ी है। बताया जाता है कि राणा कुंभा झालावाड़ की राजकुमारी को,जो मंडोर (मारवाड़ की पुरानी राजधानी, जोधपुर से 9 किलोमीटर उत्तर में) के राठौर राजकुमार की मंगेतर थी, जबरन ब्याह लाए थे। राठौर ने अपनी मंगेतर को हासिल करने की कई बार कोशिश की, किन्तु असफल रहा। कुंभा ने झाली रानी के लिए कटारगढ़ में एक मालिया (महल) बनाया था। बारिश के बाद जब आसमान साफ हो जाता, तो झाली महल से मंडोर का महल साफ नजर आ जाता था। रात के समय झाली महल में जलती मशाल को भी मंडोर के महल से देखा जा सकता था।

विजयपोल से दुर्ग के भीतर पहुंचने पर मन्दिरों, मंडपों और आवासीय खंडहरों का सिलसिला शुरू हो जाता है। बताया जाता है कि किसी समय दुर्ग के भीतर 365 मन्दिर थे, जिनमें से कई आज भी मौजूद हैं। इनमें प्रमुख हैं- मामादेव (कुंभास्वामी) मन्दिर, विष्णु मन्दिर और नीलकंठ मन्दिर। नीलकंठ महादेव मन्दिर के पास राणा कुंभा द्वारा निर्मित विशाल यज्ञवेदी का दो मंजिला भवन है। यज्ञ से उत्पन्न धुएं को बाहर निकालने के लिए छत में जालियां बनी हैं और ऊपर सुन्दर गुम्बद है। 

कटारगढ़ के उत्तर में नीचे वाली भूमि में मामादेव (कुंभास्वामी) मन्दिर है। मामादेव मन्दिर से थोड़ी दूरी पर एक कुंड है। यहीं पर राणा कुंभा की उसके बेटे ऊदा ने पीछे से वार करके जघन्य हत्या की थी। कुंड की सीढ़ियों पर बने झरोखों में अनेक देवी-देवताओं की पाषाण मूर्तियां हैं। इसी मन्दिर के प्रांगण के बाहर कुंभा ने पत्थर की शिलाओं पर नागरी लिपि और संस्कृत भाषा में अपनी प्रशस्ति उत्कीर्ण कराई थी। अब यह शिलालेख और कुंभलगढ़ के अन्य कई महत्वपूर्ण पुरावशेष उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। 

कुंभलगढ़ दुर्ग सुदृढ़ तो था ही, काफी हद तक स्वावलंबी भी था। इसके भीतर के ऊंचे स्थानों पर मन्दिर, महल और आवास बनाए गए। इसके समतल भागों का उपयोग खेती के लिए और ढलानों का उपयोग जलाशयों के लिए किया गया। किले में आज भी खेती होती है। किले में आज भी बहुत से परिवार बसते हैं।

अब कुंभलगढ़ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियंत्रण में है, मगर व्यवस्था नाकाफी है। पुराने मन्दिरों और आवासों की दीवारों के साथ खानपान की कई दुकानें खुल गई हैं। जिस कक्ष को राणा प्रताप का जन्म स्थान बताया जाता है, वहां अब चमगादड़ों का स्थायी बसेरा है। 

धन्यवाद 

Post a Comment

और नया पुराने