गुप्तकालीन उद्योग एवं व्यवसाय
Iron Pillar |
इस काल में धातु उद्योग का वैज्ञानिक आधार पर विकास हो चुका था। वराहमिहिर ने खानों को देश की समृद्धि का स्रोत कहा है। अमरकोष में सोना, चांदी, लोहा , ताँबा, पीतल, सीसा और टीन आदि धातुओं का उल्लेख मिलता है। कामसूत्र में धातु विज्ञान को 64 कलाओं में से एक माना गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि भारत में सोना, चांदी और ताँबा आदि धातुओं का उत्पादन होता है और इन धातुओं का देश में बाहुल्य है।
इस काल में आम इस्तेमाल की दृष्टि से लोहा सबसे महत्वपूर्ण धातु थी। अमरकोष में लोहे के सात नाम बताये गये हैं, ये हैं – लोह, शस्त्रक, तीक्ष्ण, पीण्ड, कालायस, अय और अश्मसार। लोहार को लोहकारक तथा व्योकार आदि नामों से जाना जाता था। मेहरोली का लोहस्तम्भ गुप्तकालीन धातु कला का जीता जागता प्रमाण है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें हजारों वर्षों की हवा, धूप तथा वर्षा के बावजूद आज तक जंग नहीं लगा है।
सुनार विभिन्न प्रकार के आभूषण बनाते थे। इस काल के साहित्य में उनके लिए स्वर्णकार, नाडिंधम, कलाद तथा रूक्मकारक आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। सुनार हेराफेरी के लिए प्रसिद्ध थे। शुद्रक के मतानुसार ऐसा सुनार जो चोरी न करता हो, बड़ी कठिनाई से मिलता है। स्त्री तथा पुरूष दोनों आभूषण धारण करते थे। इन आभूषण में नूपुर, करधनी, ग्रैवेयक, कर्णाभूषण, हेमवैकक्ष्यक तथा अंगूठी आदि का उल्लेख मिलता है। चांदी के लिए रजत के अतिरिक्त रूप्य शब्द का उल्लेख मिलता है। चांदी से पात्र तथा अन्य कीमती वस्तुएं बनायी जाती थी। तांबे से पात्र, उपकरण, औजार, सिक्के, दर्पण तथा अन्य वस्तुएं बनायी जाती थीं। भीटा से गुप्तकालीन स्तर में तांबे की चूड़ियाँ, बर्तन तथा तिपाइयाँ आदि प्राप्त हुई हैं। इस कार में भूमिदान का व्यापक प्रचलन हो गया था और भूमिदानानुशासन अधिकांशतः ताम्रपत्रों पर ही लिखे जाते थे। तांबे और कांसे से मूर्तियां भी बनाई जाती थीं। इनमें उत्तर प्रदेश से प्राप्त तांबे की बुद्ध की बैठी हुई मूर्ति, बिहार से प्राप्त कांसे की बुद्ध मूर्ति तथा सुल्तानगंज से प्राप्त तांबे की विशालकाय बुद्ध मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
गुप्तकाल में मणियों का भी बहुत प्रयोग किया जाता था। वराहमिहिर ने 22 प्रकार की मणियों का उल्लेख किया है जो देश के विभिन्न भागों से मिलती थी। स्वर्णकार भी अपने विविध आभूषणों में अनेक प्रकार के रत्नों का उपयोग करते थे। हाथी दाँत का काम भी उन्नत दशा में था। इससे निर्मित विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का प्रयोग धनी व्यक्ति अपने घर की शोभा बढ़ाने के लिए करते थे।
इस काल में शिल्प उद्योग भी उन्नति पर था। वास्तुकार अपने शिल्प से सुन्दर और आकर्षक वास्तुकला का निर्माण करते थे। देवगढ़ का दशावतार मन्दिर, तिगवा स्थित विष्णु मन्दिर, भूमरा स्थित शिव मन्दिर, कानपुर का भीतर गांव का मन्दिर तथा नचना-कुठार स्थित पार्वती मन्दिर इनकी वास्तुकला के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इस काल की मिली विभिन्न कला-कृतियां भी इस काल के कलाकारों की अद्भुत कल्पना और संयोजना का दिग्दर्शन कराती है। अजन्ता, एलोरा तथा बाघ आदि की कलाएं भी उस काल के शिल्पियों की महान देन है।
कुम्भकार अनेक प्रकार के मिट्टी के बर्तन तथा अन्य वस्तुएं बनाते थे। ये विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तनों के अतिरिक्त बोतल, रंग भरने के पात्र एवं सांचे भी बनाते थे। मृत्पात्रों के हैंडिलों के आकार-प्रकारों एवं अलंकरण में पर्याप्त विविधता एवं कलात्मक उत्कृष्टता देखने को मिलती है। अहिच्छत्र से पकी मिट्टी की बनी गंगा तथा यमुना की आदमकद मूर्तियाँ मिली हैं। मिट्टी के विभिन्न प्रकार के मनके बनाने का उद्योग भी इस काल में महत्वपूर्ण था। नमक उद्योग पर राज्य का एकाधिकार प्रतीत होता है। अमरकोष में दो प्रकार के नमक बताए गए हैं। एक – समुद्र के पानी से बनने वाला और दूसरा चट्टानों से प्राप्त। इसी ग्रन्थ में सेंधा नमक के चार और सांभर नमक के दो प्रकारों का उल्लेख मिलता है। चतुर्भाणी में नमक की दुकान का उल्लेख मिलता है।
इस युग के अन्य उद्योग-धन्धों में सैनिक वृत्ति अपनाने वाले शस्त्रकर्म में विश्वास रखते थे जिसके कारण उसके परिवार और वर्ग के लोग यही कार्य करते थे। समाज में ऐसे भी लोग थे जो नदी एवं तालाब से मछली पकड़ते तथा बेचते थे। कालिदास ने ऐसे लोगों को धीवर अथवा जलोपयोगी कहा है। चर्मकार विभिन्न प्रकार की चमड़े की वस्तुएं बनाते थे। इनमें जूते, चमड़े की रस्सियों, चाबुक तथा मशक आदि के उल्लेख मिलते हैं। तत्कालीन मूर्तियों और चित्रों से अनेक आकर्षक जूतों का पता चलता है। इनके अतिरिक्त अमरकोष में कुली (भारवाहक), मछुआरा, माँस विक्रेता, चिड़ीमार तथा शांखिक आदि के भी उल्लेख मिलते है।
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