चित्तौड़गढ़ दुर्ग 

"गढ़ों में गढ़ चित्तौड़गढ़, और सब गढ़ैया"

चित्तौड़गढ़ भारत का सम्भवतः सबसे प्रसिद्ध दुर्ग है। अरावली की एक विशाल पृथक पहाड़ी के पठार पर स्थित चित्तौड़गढ़ गंभीरी और  बेड़च नदियों से घिरा हुआ है। आज से लगभग ढाई हजार साल पहले चित्तौड़ के आस-पास का क्षेत्र शिवि जनपद कहलाता था। पता चलता है कि परमार वंश के शासक चित्रांगद मोरी (मौर्य) ने ईसा की आठवीं सदी के प्रारम्भ में चित्तौड़ के दुर्ग का निर्माण किया था। उसी के नाम पर दुर्ग का नाम चित्रकोट या चित्रकूट पड़ा, जिससे बाद में चित्तौड़ शब्द बना।

Chittorgarh Fort
Chittorgarh Fort

चित्तौड़गढ़ पर अनेक आक्रमण हुए उनमें तीन विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। 1303 ई० में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उस समय वहां राणा रतनसिंह का शासन था। कहा जाता है कि राणा रतनसिंह की खूबसूरत रानी पद्मिनी को हासिल करने के लिए अलाउद्दीन ने यह आक्रमण किया था। युद्ध में राणा की हार हुई और रानी पद्मिनी ने अन्य वीरांगनाओं के साथ जौहर कर लिया। 

1534 ई० में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। इस अवसर पर राजमाता कर्मवती ने हुमायूं को राखी भेजकर सहायता मांगी थी। मगर दिल्ली की सेना समय पर चित्तौड़ पहुंच नहीं पाई। राणा विक्रमजीत की करारी हार हुई और वह चित्तौड़ से भाग गया। रानी कर्मवती ने बहुत सी राजपूतानियों के साथ जौहर किया। 

1567 ई० में अकबर ने चित्तौड़ के दुर्ग को घेर लिया। राणा उदयसिंह ने सामन्तों की सलाह पर दुर्ग की रक्षा की जिम्मेदारी वीर जयमल और  फत्ता को सौंप दी और स्वयं राजपरिवार सहित राजपीपला चले गए। जयमल, फत्ता और दूसरे राजपूत वीर आखिरी सांस तक लड़ते रहे। अंत में दुर्ग पर अकबर का कब्जा हो गया। रानी फूलकंवर के साथ अनेक राजपूतानियों ने जौहर कर लिया।

बार-बार आक्रमणों से चित्तौड़गढ़ को बहुत क्षति पहुंची फिर भी इसके गौरवशाली अतीत का स्मरण कराने वाले कई ऐतिहासिक स्मारक आज भी दुर्ग के भीतर मौजूद हैं। पश्चिम की ओर से किले पर चढ़ने के लिए गंभीरी नदी पर बने सात मेहराबों वाले करीब सात सौ साल पुराने पत्थर के पुल को पार करना पड़ता है। पुल पार करने के बाद करीब डेढ़ किलोमीटर लम्बी लहराती सड़क की चढ़ाई शुरू हो जाती है। ऊपर पहुंचने तक जो सात पोल यानी दरवाजे मिलते हैं उनके क्रमशः नाम हैं – पाड़न पोल, भैरव पोल, हनुमान पोल, जोड़ला पोल, गणेश पोल, लक्ष्मण पोल और राम पोल। राम पोल के आगे किले के भीतर दो समतल मार्ग उत्तर और दक्षिण की ओर जाते हैं।


दक्षिण की ओर कुछ आगे बढ़ने पर तुलजा भवानी का मन्दिर आता है। इसके आगे नौलखा भंडार है। इन दोनों स्मारकों का निर्माण राणा विक्रमादित्य को छल से मारने वाले दासी-पुत्र बनवीर ने किया था। नजदीक ही राणा कुम्भा का बनवाया श्रृंगार चौरी मन्दिर है। इन स्मारकों के दक्षिण में कुम्भा महल है। राणा कुम्भा ने इसका जीर्णोद्धार किया था और इसमें नए भवन बनवाए थे, इसलिए यह कुम्भा महल कहलाता है। यह महल राजपूत स्थापत्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। 

कुम्भा महल के पूर्व में उदयपुर के महाराणा फतह सिंह द्वारा बनवाया फतहप्रकाश महल है। इस महल में सरकार ने एक संग्रहालय की स्थापना की है। इस महल के पास ही सतबीस देवरी नामक एक प्राचीन जैन मन्दिर है। यहां से एक सड़क चित्तौड़ दुर्ग के सर्वप्रमुख आकर्षण विजय-स्तम्भ की ओर जाती है। रास्ते में कुम्भश्याम का मन्दिर और मीराबाई का मन्दिर है।

विजय स्तम्भ को राणा कुम्भा ने मालवा पर अपनी विजय की स्मृति में 1448 ई० में बनवाया था। नौ मंजिला, 34 मीटर ऊंचा यह स्तम्भ भारतीय स्थापत्य और कारीगरी का नायाब नमूना है। इसमें ऊपर जाने के लिए 157 घुमीतर सीढ़ियां बनी हैं। इस स्तम्भ के भीतरी और  बाहरी भागों पर अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां और जनजीवन की सुन्दर झांकियां उकेरी गई हैं।  विजय स्तम्भ के समीप ही समिद्धेश्वर महादेव का मन्दिर है। मन्दिर के गर्भगृह के नीचे के भाग में शिवलिंग और पीछे की दीवार में शिव की विशाल त्रिमूर्ति बनी हुई है। इस मन्दिर का निर्माण धार (मालवा) के विद्यानुरागी परमार राजा भोज ने करवाया था। पास ही महासती स्थल ओर विशाल गौमुख कुंड है, जिसमें लोग स्नान करते हैं।

चित्तौड़ दुर्ग का प्रसिद्ध कालिकामाता मन्दिर प्रतिहार स्थापत्य का एक उत्कृष्ट नमूना है। इसका निर्माण ईसा की आठवीं- नौवीं सदी में हुआ था। प्रारम्भ में यह सूर्य मन्दिर था। बाद में यहां कालिका की मूर्ति स्थापित कर दी गई। कालिका मन्दिर से दक्षिण की ओर आगे बढ़ने पर एक जलाशय के किनारे रावल रतनसिंह की रानी पद्मिनी का महल है। एक छोटा महल जलाशय के भीतर भी है । पद्मिनी महल के एक कक्ष में बड़े-बड़े कांच लगे हैं, जिनमें पानी के बीच वाले महल में खड़े व्यक्ति का प्रतिबिंब साफ दिखाई देता है। कहते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी के प्रतिबिंब को इसी स्थान पर खड़े होकर देखा था। 

दुर्ग में प्रवेश के लिए उत्तर और पूर्व की ओर से भी मार्ग हैं। पूर्व के मार्ग पर बना सूरजपोल दुर्ग का सबसे प्राचीन दरवाजा है। इस दरवाजे से भीतर आने पर पास ही सात मंजिला और करीब 22 मीटर ऊंचा कीर्तिस्तम्भ है। ऊपर पहुंचने के लिए इसके भीतर घुमावदार 54 सीढ़ियां बनी हुई हैं। इस स्मारक का निर्माण ईसा की बारहवीं सदी में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के बघेरवाल महाजन जीजा ने किया था। कीर्तिस्तम्भ प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का स्मारक है। इसके चारों पाश्र्वों पर छोटी-बड़ी अनेक जैन मूर्तियां खुदी हुई हैं। कीर्तिस्तम्भके पास ही महावीर मन्दिर है, जिसका राणा कुम्भा के समय में जीर्णोद्धार किया गया था।

कीर्तिस्तम्भ से उत्तर की ओर आगे बढ़ने पर लाखोटाबारी दरवाजा आता है। इस दरवाजे से भी एक रास्ता किले में पहुंचता है। लाखोटाबारी दरवाजे पर पहुंचने के साथ ही चित्तौड़ के दुर्ग की परिक्रमा पूरी हो जाती है।

धन्यवाद 

Post a Comment

और नया पुराने