तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792 ई०)

टीपू अपने पिता हैदरअली के समान वीर, साहसी, कुशल सेनानायक और महत्वाकांक्षी था लेकिन उसमें हैदरअली का राजनीतिक विवेक और कूटनीतिक चातुर्य नहीं था। प्रारम्भ से ही स्पष्ट था कि मंगलौर की संधि केवल युद्ध-विराम मात्र थी, इससे स्थायी शान्ति स्थापित नहीं हुई थी। दोनों पक्ष भविष्य में होने वाले युद्ध की तैयारी कर रहे थे।

Third Anglo-Mysore war
Anglo-Mysore War

युद्ध के कारण 

पारस्परिक सन्देह – 

1784 ई० की मंगलौर संधि ‘झूठी शान्ति’ थी। दोनों पक्ष जानते थे कि युद्ध शीघ्र होगा और इसकी तैयारी कर रहे थे।

टीपू के प्रति कार्नवालिस की  नीति –

पिछले युद्ध में अंग्रेजों को ज्ञात हो गया था कि मराठों की अपेक्षा मैसूर अधिक शक्तिशाली था तथा अंग्रेजों को मैसूर से अधिक खतरा था। मैसूर राज्य में फ्रांसीसियों का प्रभाव था और उन्होंने मैसूर की सेना को प्रशिक्षित किया था। कार्नवालिस को विश्वास था कि टीपू से युद्ध आसन्न था। इसलिए उसने मराठों तथा निजाम से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये और उनसे पृथक संधियाँ कीं। उसका उद्देश्य टीपू को अकेला करना था।

गुंतूर का प्रश्न –

कार्नवालिस ने बसालतजंग की मृत्यु के पश्चात गुंतूर को निजाम से ले लिया। गुंतूर पर अधिकार करना अंग्रेजों के लिए आवश्यक था क्योंकि इससे उत्तरी सरकार को कर्नाटक से जोड़ा जा सकता था। कार्नवालिस ने निजाम को यह आश्वासन अवश्य दिया कि टीपू ने उसके जिन क्षेत्रों पर अधिकार कर रखा था उसे वापस दिलाने में अंग्रेज निजाम की सहायता करेंगे।

ट्रावनकोर के राजा पर टीपू का आक्रमण –

क्योंकि अकेला निजाम टीपू पर आक्रमण करने के लिए उद्यत नहीं हुआ, इसलिए कार्नवालिस ने मैसूर पर आक्रमण करने के लिए दूसरा बहाना ढूँढना शुरू किया। इस समय टीपू ट्रावनकोर के राजा पर आक्रमण कर दिया। ट्रावनकोर का राजा अंग्रेजों के संरक्षण में था। कार्नवालिस ने ट्रावनकोर के राजा की सहायता की और टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

त्रिगुट का निर्माण –

टीपू ने युद्ध के पूर्व फ्रांस और तुर्की को राजदूत भेजे लेकिन विदेशों से सहायता प्राप्त करने के उसके सभी प्रयत्न निष्फल हुए। दूसरी ओर, कार्नवालिस ने 1790 ई० में मराठों तथा निजाम से सन्धि करके टीपू के विरुद्ध गुट का निर्माण कर लिया। युद्ध मुख्य रूप से अंग्रेजों ने किया था और इसमें मराठों या निजाम का योगदान केवल नाममात्र का था। फ्रांस में क्रान्ति हो जाने के कारण टीपू को फ्रान्सीसियों से भी सहायता नहीं प्राप्त हुई।

युद्ध की घटनाएँ –

1790 ई० में अंग्रेज सेनापति मीडोज ने मैसूर पर आक्रमण किया और राजधानी श्रीरंगपट्टनम तक पहुँच गया। पश्चिम में अंग्रेज सेनापति एबरक्राम्बी ने मालाबार पर अधिकार कर लिया। मराठों तथा निजाम ने भी मैसूर पर आक्रमण कर दिया। टीपू ने मीडोज को पराजित कर खदेड़ दिया। इस पर कार्नवालिस ने स्वयं सेनापति का पद सँभाला। मार्च, 1791 ई० में उसने बंगलौर पर अधिकार कर लिया। फरवरी, 1792 ई० में उसने मराठों तथा निजाम की सहायता से श्रीरंगपट्टनम को घेर लिया। विवश होकर टीपू को सन्धि की बातचीत करनी पड़ी। मार्च, 1792 ई० में श्रीरंगपट्टनम की सन्धि से युद्ध समाप्त हो गया।

श्रीरंगपट्टनम की सन्धि, 1792 ई० –

इस सन्धि की धाराएँ निम्नलिखित थीं –

  • टीपू को अपना आधा राज्य विजेताओं को देना पड़ा। अंग्रेजों को बड़ा महल, पश्चिम में मालाबार और दक्षिण में डिंडीगल के प्रदेश मिले, निजाम को कृष्णा और पन्ना नदियों के का प्रदेश और मराठों को पश्चिमी कर्नाटक दिया गया।
  • कुर्ग राज्य जो टीपू की आधीनता में था, कार्नवालिस ने अंग्रेजों के संरक्षण में ले लिया।
  • टीपू को युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में अंग्रेजों को तीन करोड़ तीस लाख रूपया देना पड़ा। इसमें से आधा धन तो उसने तुरन्त दे दिया और शेष धन किश्तों में देने का वचन दिया। इसके लिए उसने अपने दो पुत्रों को अंग्रेजों के पास बंधक रखना स्वीकार किया।

सन्धि का महत्व -

यह सन्धि टीपू के लिए घोर अपमानजनक थी और इससे उसे भारी हानि उठानी पड़ी। दूसरी ओर कार्नवालिस की आलोचना की गयी कि उसने मैसूर राज्य को पूर्ण रूप से नष्ट नहीं किया।

इस प्रकार मैसूर को ब्रिटिश तथा मराठा क्षेत्रों के मध्य बफर राज्य रखना उसका उद्देश्य था। कार्नवालिस की नीति उचित और तर्कसंगत थी। उसने संरक्षक समिति के अध्यक्ष को लिखा था, "अपने मित्रों को अत्यन्त शक्तिशाली बनाये बगैर ही अपने शत्रु को पुर्णतया अपाहिज कर दिया है।"

धन्यवाद 

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