अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर शीत युद्ध का प्रभाव 

शीत युद्ध दो गुटों के बीच तीव्र तनाव की स्थिति थी, यह सशस्त्र युद्ध से भी अधिक भयंकर था, शीत युद्ध के विभिन्न पक्ष समस्याओं को उलझाने का प्रयास करते थे, बजाय इसके उन्हें सुलझाने की चेष्टा करें। सभी विवादों तथा संघर्षों को शीत युद्ध के मोहरों के रूप में प्रयोग किया जाता था।जवाहर लाल नेहरू ने इसे स्नायु युद्ध कहा था। शीतयुद्ध की समाप्ति पर इसका प्रभाव विश्व राजनीति पर पड़ा। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर इसका दूरगामी प्रभाव हुआ।

Cold War
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विश्व का दो गुटों में विभाजित होना –

शीतयुद्ध के परिणामस्वरूप विश्व दो गुटों में विभाजित हो गया जिनके एक गुट का नेतृत्व अमेरिका ने किया। इस गुट में पूँजीवादी देशों का प्रभुत्व था। दूसरा गुट उन समाजवादी देशों का था जिसका नेतृत्व रूस ने किया। इन दो गुटों की उत्पत्ति का परिणाम यह हुआ कि विश्व की दूसरी प्रमुख समस्याओं को इसी गुटबन्दी के आधार पर देखा जाने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन गुटों में शामिल होने वाले राष्ट्रों को अपनी स्वतन्त्रता के साथ समझौता करना पड़ा जिसके चलते रूमानिया, बुल्गारिया जैसे स्वतन्त्र राष्ट्रों को समाजवादी सोवियत रूस के दृष्टिकोण से सोचना पड़ा। जबकि फ्रांस व ब्रिटेन जैसे विकसित देशों को अमेरिकी नजरिये से देखने को विवश होना पड़ा।

परमाणु युद्ध की सम्भावना का खतरा -

शीतयुद्ध के बाद परमाणु अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण बड़े पैमाने पर किया जाने लगा। चारों ओर सभी राष्ट्रों में परमाणु सम्पन्न राष्ट्र बनने की होड़ शुरू हो गई। अमेरिका ने सन् 1944 में परमाणु बम का प्रयोग जापान के हिरोशिमा व नागासाकी नगरों पर कर अभूतपूर्व आतंक का  का परिचय दिया। ऐसे वातावरण में यह अनुभव किया जाने लगा कि अगला विश्व युद्ध भयंकर एवं विनाशकारी परमाणु युद्ध होगा। दूसरी ओर क्यूबा संकट के कारण भी परमाणु युद्ध की सम्भावना बढ़ गई। इस प्रकार जनवरी – फरवरी, 1991 में भी खाड़ी युद्ध के समय परमाणु युद्ध की सम्भावना बढ़ गई थी जिससे अधिकांश देश परमाणु युद्ध के खतरे से भयभीत होने लगे। 

आतंक एवं अविश्वास का विस्तार -

शीतयुद्ध के बाद राष्ट्रों को परमाणु युद्ध ने तो भयभीत किया ही साथ ही साथ आतंक एवं अविश्वास का भी विस्तार हुआ। अमेरिका और रूस के आपसी मतभेदों के कारण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में गहरे तनाव, वैमनस्य, प्रतिस्पर्धा एवं अविश्वास की गहरी स्थितियाँ सामने आयीं। विश्व के अनेक देश और जनमानस में यह भय सताने लगा कि एक छोटी-सी चिंगारी भी तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन सकती है। 

सैनिक सन्धियों एवं सैन्य गठबन्धनों का बाहुल्य -

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अनेक सैन्य सन्धियों में वृद्धि हुई। नाटो, सीटो, सैण्टों एवं वारसा पैक्ट जैसे गठबन्धनों एवं सन्धियों का प्रादुर्भाव शीतयुद्ध के परिणामस्वरूप ही हुआ। इन संगठनों एवं सन्धियों का परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक राज्य को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद निरन्तर युद्ध की स्थिति में बनाये रखा।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण का प्रादुर्भाव -

शीतयुद्ध के बाद शान्ति की बात करना अब सन्देहास्पद लगने लगा था क्योंकि इस काल में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सैनिक दृष्टिकोण का प्रादुर्भाव हो गया था। इन परिस्थितियों में शान्तिकालीन युग में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का संचालन एक अति दुश्कर कार्य समझा जाने लगा था।

संयुक्त राष्ट्र संघ का शक्तिहीन होना -

शीतयुद्ध के बाद उत्पन्न परिस्थितियों के परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्ता कम समझी जाने लगी क्योंकि उसके कार्य संचालन में अक्सर अवरोध उतपन होने लगा था। दोनों महाशक्तियों के परस्पर तनाव, हित संघर्ष के संयुक्त राष्ट्र संघ मात्र राजनीतिक अखाड़ा बनकर रह गया।

मानवीय कल्याण के कार्यक्रमों की उपेक्षा -

शीतयुद्ध के कारण विश्व राजनीति का प्रमुख केंद्र बिन्दु अपने-अपने राष्ट्र की सुरक्षा मात्र तक ही सीमित होकर रह गया। इससे मानवीय कल्याण के कार्यक्रमों की उपेक्षा हुई जिसके कारण तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में बीमारी, भुखमरी, अशिक्षा, आर्थिक पिछड़ापन, राजनीतिक अस्थिरता आदि जैसी जरूरी समस्याओं का समाधान नहीं हो सका।

उपसंहार -

1970 ई० के दशक में शीतयुद्ध की राजनीति ने कई नये मोड़ लिये। अनेक वर्षों से तनाव शैथिल्य के लिए जो प्रयास किए जा रहे थे, वे लगभग उसी समय सफल हुए जब वियतनाम युद्ध समाप्त हुआ। 1975 ई के हेल्सिंकी सम्मेलन ने पूर्व-पश्चिम तनाव को बहुत कुछ कम कर दिया। 1970 ई० के दशक में मध्य पूर्व में अरब-इज्ररायल संघर्ष जारी रहा, परन्तु उनके मध्य सामान्य सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयास भी किये गये।

महत्व -

  • शीतयुद्ध लगभग 45 वर्ष तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य मुद्दा बना रहा। इस बीच संसार की सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश चीन में साम्यवाद की विजय ने शीतयुद्ध को नया रूप दिया। परन्तु चीन-सोवियत संघर्ष के कारण शीतयुद्ध केवल वैचारिक दायरे में ही नहीं रह गया। यह त्रिकोण बन गया। 
  • सत्तर के दशक के अन्त में जहाँ अरब-इज़रायल संघर्ष में आशा की कुछ किरणें दिखाई दीं, वहीं अफगानिस्तान में सोवियत के सशस्त्र हस्तक्षेप ने नव-शीत युद्ध आरम्भ कर दिया। 
  • कुछ ही समय पूर्व साम्यवादी चीन ने साम्यवादी वियतनाम पर आक्रमण करके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को, विचारधारा की सीमा से निकालकर नया आयाम दिया। 
  • 1980 के दशक में, जहाँ शीतयुद्ध समाप्ति की ओर बढ़ा, वहीं संसार में लोकतन्त्र की लहर इतनी तेजी से फैली कि उसने साम्यवाद के जन्मस्थान सोवियत संघ को भी अछूता नहीं छोड़ा।

धन्यवाद 


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