द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784 ई०)
मद्रास की सन्धि के पश्चात दस वर्षों तक अंग्रेजों तथा हैदरअली के मध्य शान्ति बनी रही लेकिन उनके सम्बन्धों में कटुता 1771 ई० से आने लगी थी। इस कटुता का कारण यह था कि अंग्रेजों ने सन्धि की शर्तों के अनुसार हैदरअली की सहायता नहीं की थी जब मराठों ने उस पर आक्रमण किया था।
Second Anglo-Mysore War |
युद्ध के कारण –
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध 1780 ई० में आरम्भ हुआ। इसके कारण निम्नलिखित थे –
माही पर अंग्रेजों का आधिपत्य –
1775 ई० में अमेरिका का स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ हो गया था। इसमें फ्रान्स अमेरिकन उपनिवेशों की सहायता कर रहा था। वह भारत में भी अपनी शक्ति पुनर्स्थापित करना चाहता था। इसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने भारत में फ्रान्सीसी बस्तियों पर अधिकार कर लिया। इसमें मालाबार तट पर माही का बन्दरगाह भी था। इस पर इस समय हैदरअली का अधिकार था, अतः अंग्रेजों की कार्यवाही को उसने युद्ध की घोषणा माना।
गुंतूर पर अंग्रेजों का अधिकार –
1775 ई० में अंग्रेजों ने गुंतूर पर अधिकार करने के लिए हैदरअली के क्षेत्र से अपनी सेना भेजी थी। इसके लिए उन्होंने हैदरअली से अनुमति नहीं ली थी। इसके अतिरिक्त हैदरअली स्वयं गुंतूर को अधिकृत करना चाहता था।
मद्रास सरकार की अविवेकपूर्ण नीति –
अंग्रेज और मराठों में युद्ध आरम्भ हो गया था, अतः अंग्रेजों के लिए आवश्यक था कि वे निजाम और हैदरअली से अच्छे सम्बन्ध रखें। इस समय मद्रास सरकार ने अविवेकपूर्ण नीति अपनाई। उन्होंने उत्तरी सरकार का लगान निजाम को देना बन्द कर दिया जिससे निजाम नाराज हो गया। इसके अलावा अंग्रेजों ने गुंतूर पर कब्जा करने के लिए निजाम से कोई अनुमति नहीं ली। इससे भी निजाम नाराज हो गया। गुंतूर के प्रश्न पर हैदरअली भी अंग्रेजों से नाराज हो गया।
हैदरअली और अंग्रेजों के हितों में विरोध –
हैदरअली कर्नाटक पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। अंग्रेज उसकी इस आकांक्षा का विरोध करने के लिए कटिबद्ध थे। हैदरअली अपनी शक्ति में वृद्धि कर रहा था और इसमें उसे फ्रान्सीसियों से सहायता प्राप्त हो रही थी। अंग्रेज इससे भयभीत थे। दूसरी ओर, हैदरअली भी अंग्रेजों की निजाम तथा मराठों से मित्रता से आशंकित रहता था। 1780 ई० में हैदरअली ने अंग्रेजों से मित्रता स्थापित करने का प्रस्ताव किया लेकिन वारेन हेस्टिंगज ने उसके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। इससे भी हैदरअली नाराज था।
त्रिगुट का निर्माण –
इस समय हैदरअली से युद्ध करना अंग्रेजों का अदूरदर्शितापूर्ण कार्य था क्योंकि वे मराठों के साथ युद्ध में फँसे हुए थे। इस स्थिति का लाभ मराठा कूटनीतिज्ञ नाना फड़नवीस ने उठाया। उसने हैदरअली और निजाम से सन्धि करके अंग्रेजों के विरुद्ध त्रिगुट का निर्माण करा लिया। इसके बाद ही द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध आरम्भ हो गया।
युद्ध की घटनाएँ –
जुलाई 1780 ई० में हैदरअली एक शक्तिशाली सेना और 100 तोपों के साथ कर्नाटक पर टूट पड़ा और उसने भयंकर विनाश किया। टीपू ने बेली के नेतृत्व में जो सेना मद्रास के सेनापति हेक्टर मुनरो की सहायता के लिए आ रही थी, को काट डाला। इससे मुनरो घबड़ाकर अपनी सेना के साथ मद्रास भाग गया। हैदरअली ने अब अर्काट पर अधिकार कर लिया। मद्रास की सरकार भीषण आर्थिक संकट में फँसी हुई थी और उसका साहस भी समाप्त हो गया था। ऐसी स्थिति में वारेन हेस्टिंग्ज ने साहस से काम लिया और आयरकूट के नेतृत्व में एक सेना दक्षिण भेजी। हेस्टिंग्ज ने कूटनीतिज्ञ चालों का भी सहारा लिया। उसने निजाम को गुंतूर देकर उसे त्रिगुट से पृथक कर दिया। उसने नागपुर के भोंसले और महादजी सिन्धिया को भी शान्ति के पक्ष में कर लिया। उसने मद्रास के गवर्नर ह्वाइटहाल को पदच्युत कर दिया क्योंकि वह इस युद्ध के लिए उत्तरदायी था। इस बीच में आयरकूट ने हैदरअली को पोर्टोनोवो तथा पेलीपुर के युद्धों में पराजित किया लेकिन उसकी विजय निर्णायक नही थी। इन पराजयों के बाद भी हैदरअली का तीन-चौथाई कर्नाटक पर अधिकार बना रहा। इसके साथ ही हैदरअली ने 1782 ई० में तंजौर के निकट एक अंग्रेजी सेना को पराजित करके अपना प्रभुत्व फिर स्थापित कर लिया। इस बीच में एक फ्रान्सीसी जहाजी बेड़ा एडमिरल सफरन की अध्यक्षता में हैदरअली की सहायता के लिए आ गया। इस स्थिति में आयरकूट हैदरअली के सैनिक केन्द्र अरनी पर अधिकार करने में असफल रहा। इसके बाद वह बंगाल वापस लौट गया।
हैदरअली की मृत्यु –
दिसम्बर, 1782 ई० में हैदरअली की मृत्यु हो गयी। इसके बाद ही आयरकूट की भी मृत्यु हो गयी। हैदरअली की मृत्यु के पश्चात उसके योग्य और साहसी पुत्र टीपू ने युद्ध को जारी रखा। उसने बम्बई से आने वाली सेना को पराजित करके सेनापति मेथ्यूज को बन्दी बना लिया लेकिन इस समय यूरोप में फ्रांस तथा इंग्लैण्ड के मध्य युद्ध बन्द हो गया। अतः टीपू का साथ छोड़कर फ्रान्सीसी युद्ध से पृथक हो गये। अंग्रेज और टीपू भी युद्ध से थक गए थे, अतः दोनों पक्षों ने मंगलौर की सन्धि (1784 ई०) से युद्ध समाप्त कर दिया।
मंगलौर की सन्धि –
- दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के प्रदेशों तथा बन्दियों को लौटा दिया।
- अंग्रेजों ने संकट के समय मैसूर को सहायता देने का वचन दिया।
वास्तव में, इस युद्ध ने प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध के समान अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचाया था। हेस्टिंग्स की दृष्टि में यह सन्धि अत्यन्त अपमानजनक थी लेकिन उसे बाध्य होकर इसे स्वीकार करना पड़ा था। इस सन्धि में कर्नाटक के बारे में कुछ नहीं कहा गया था जो दोनों पक्षों के मध्य विवाद का विषय था। इसमें मराठों के साथ शान्ति सम्बन्धों के विषय में भी कुछ नहीं कहा गया था।
डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, “इन अभियानों में जो कुछ भी सफलता अंग्रेजों को प्राप्त हुई, वह वारेन हेस्टिंग्स की योग्यता, शक्ति और परिश्रम के कारण प्राप्त हुई थी। मद्रास की अयोग्य सरकार ने अंग्रेजी हितों को लगभग नष्ट कर दिया, अगर वारेन हेस्टिंग्स समय पर सहायता न देता।"
धन्यवाद
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