हिन्दू संस्कार 

जीवन की सम्पूर्णता की प्राप्ति के क्षेत्र में अपने को क्रमश: शुद्ध करने की प्रक्रिया को ही संस्कार कहते हैं। अतः आन्तरिक एवं बाह्य शुद्धता, नैतिकता और आध्यात्मिकता तथा जीवन की परिशुद्धता और पवित्रता संस्कारों के माध्यम से होती है। बालक मां के गर्भ से ही गुणों का परिपालन और अवगुणों का बहिष्कार करता रहे, इसीलिए संस्कार का सम्बन्ध बालक के गर्भस्थ होने के पूर्व से ही किया गया है। लेकिन इसका महत्व केवल भौतिक जीवन तक ही नहीं माना जाता है, अपितु उसके बाद के जीवन में भी इसे स्वीकार किया जाता है। इसीलिए मृत्यु के बाद भी हमारे जीवन से संस्कार को जोड़ा जाता है।

Hindu Rituals
Hindu Rituals 

डॉ राजबली पाण्डेय के अनुसार, “संस्कार का अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति की दैहिक, मानसिक एवं बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों से है जिससे वह समाज का योग्य सदस्य हो सके।"

जैमिनी के अनुसार, “संस्कार एक ऐसी क्रिया है जिसके करने से कोई व्यक्ति के किसी कार्य को करने हेतु उपयुक्त हो जाता है।"

डॉ नागेन्द्र के अनुसार, “संस्कार पूरी तरह से धार्मिक न होकर सामाजिक धार्मिक प्रत्यय भी है जिनकी अभिव्यक्ति हमारे सांस्कृतिक जीवन में होती है।"

संस्कार का उद्देश्य –

संस्कारों की व्यवहारिक उपयोगिता को ध्यान में रखकर इनके कुछ उद्देश्यों का वर्णन किया जा सकता है-

  • बीज दोष को न्यून करने के लिए संस्कार किया जाता है।
  • गर्भदोष को न्यून करने के लिए संस्कार किए जाते हैं।
  • बालक बुद्धिमान, सदाचारी, धर्म के अनुसार आचरण करने वाला हो, इसके लिए संस्कार किए जाते हैं। 
  • बालक आरोग्यवान, बलवान एवं आयुष्मान हो, इसलिए संस्कार किए जाते हैं।
  • सनातन धर्म के अनुसार प्रत्येक कृत्य एवं उस पर किया गया प्रत्येक संस्कार परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए होता है क्योंकि ईश्वर की कृपा होने पर ही व्यक्ति के उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है।व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति कर ब्रह्मलोक या मोक्ष प्राप्ति की क्षमता को अर्जित करने के लिए संस्कारों को कराया जाता है।
  • दैवी आशीर्वाद तथा मनोकामना की पूर्ति के लिए संस्कार किए जाते हैं।

प्रमुख हिन्दू संस्कार –

मनु ने 13 संस्कारों  का उल्लेख किया है। गृहसूत्रों में 12 – 18 तक संस्कारों का वर्णन है। गौतम धर्मसूत्र के अनुसार संस्कारों की संख्या 40 बताई गई है। परन्तु परवर्ती स्मृतियों में संस्कारों की संख्या 16 प्राप्त होती है जिनका वर्णन निम्नवत् है-

गर्भाधान संस्कार –

गौतम एवं बौधायन आदि व्यवस्थाकारों ने इस संस्कार का सर्वप्रथम उल्लेख किया है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार का विधान है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखने वाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व यह अपनी तन-मन की शुद्धि के लिए यह संस्कार करना चाहिए। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था।

पुंसवन संस्कार –

पुंसवन शब्द का प्रयोग अथर्ववेद में हुआ है जिसका अर्थ है पुत्र को जन्म देना। अतः पुत्र की प्राप्ति के लिए इस संस्कार का आयोजन किया जाता था। याज्ञवल्क्य एवं पास्कर के अनुसार, गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में यह संस्कार किया जाना चाहिए। इस संस्कार को सम्पन्न करने में उन देवताओं को आराधना एवं पूजा द्वारा प्रसन्न करना होता था जिनकी कृपा से गुणी एवं बुद्धिमान पुत्र उत्पन्न हो।

सीमान्तोन्नयन संस्कार –

इस संस्कार का आयोजन गर्भाधान के चौथे, छठवें एवं आठवें माह में किया जाता था। सीमान्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य सम्पन्न होना। ऐसा विश्वास था कि जब स्त्री गर्भवती होती है, तब उस पर अनेक विघ्न बाधाएँ आती हैं जो उसे डरा कर गर्भ का विनाश कर देती हैं। अतः इन दुष्ट शक्तियों और बाधाओं से गर्भिणी की रक्षा करना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य था। इस संस्कार के बाद गर्भिणी स्त्री को शारीरिक श्रम से वर्जित करके शान्ति और सुविधा का वातावरण प्रदान किया जाता था। ताकि वह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य लाभ कर सके।

जातकर्म संस्कार –

पुत्र जन्म के पश्चात यह संस्कार सम्पन्न होता था। मनु के अनुसार, नाल छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवीय जगत से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने वाले बालक को मेधा, बल तथा दीर्घायु के लिए स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घी मन्त्रोच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूँद घी एवं छह बूँद शहद का सम्मिश्रण अभिमन्त्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके पश्चात माँ बालक को स्तनपान कराती है।

नामकरण संस्कार –

संतान को नाम प्रदान करना भी एक संस्कार माना गया है। शिशु के नाम का चुनाव धार्मिक क्रियाओं के साथ निश्चित तिथि को सम्पन्न किया जाता था। मनु की व्यवस्था थी कि दसवें या बारहवें दिन शुभ तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त में नामकरण संस्कार का आयोजन करना चाहिए। सुन्दर और कर्णप्रिय नाम अच्छे माने जाते रहे थे। इस संस्कार के अन्त में बाह्मणों को भोज करवाया जाता था। 

निष्क्रमण संस्कार –

संतान को जन्म के बाद पहली बार घर से बाहर निकालने को निष्क्रमण कहा जाता था। यह संस्कार जन्म के चौथे माह में होता था। एक निश्चित माँगलिक तिथि को पूजन पाठ के बाद संतान को प्राकृतिक वातावरण में लाकर सर्वप्रथम सूर्य का दर्शन कराया जाता था । कभी-कभी तीसरे माह सूर्य का और चौथे माह चन्द्र का दर्शन कराने की भी व्यवस्था थी।

अन्नप्राशन संस्कार –

अन्नप्राशन संस्कार के द्वारा संतान को सर्वप्रथम अन्न खिलाया जाता है। शिशु के दांत निकलने पर उसे प्रथम बार अन्न खिलाने को प्राशित्र कहा जाता था। छठे माह या कुलाचार के अनुरूप शिशु का अन्नप्राशन संस्कार कराया जाता था। इस अवसर पर दूध, घी, दही, शहद और भात बच्चे के मुख से स्पर्श कराया जाता था।

चूड़ाकर्म संस्कार –

शिशु के सर्वप्रथम बाल काटने का आयोजन चूड़ाकर्म संस्कार के अन्तर्गत होता था। इसे मुंडन संस्कार भी कहा जाता था। ऐसी मान्यता है कि चूड़ाकर्म से दीर्घायु और कल्याण प्राप्त होता है। मनु के अनुसार सभी द्विजाति बालकों का यह संस्कार वेद और धर्मसम्मत रूप में पहले और तीसरे वर्ष में कराया जाता था।

कर्णवेध संस्कार –

इसमें शिशु के शोभन अलंकरण के निमित्त कान में छेद किया जाता था। यह संस्कार जन्म के सातवें माह में होता था। कभी-कभी तीसरे या पाचवें वर्ष भी होता था। यह वैदिक कालीन व्यवस्था थी क्योंकि अथर्ववेद में इसका उल्लेख मिलता है। इस अवसर पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार स्वर्ण, रजत एवं अयस् की सूई की नोक से कान को छेद कर उसमें स्वर्ण या रजत की बाली या कुण्डल पहनाया जाता था।

विद्यारम्भ संस्कार –

पाँच वर्ष की उम्र वाले बालक  को शिक्षा प्रदान करने के लिए इस संस्कार को कराया जाता था। इसके अन्तर्गत बालक को अक्षरों का बोध कराया जाता था। इसीलिए कुछ विद्वान द्वारा इसे अक्षरारम्भ भी कहा जाता था। शुभ मुहूर्त में शिक्षक द्वारा बालक को पूर्व दिशा की ओर बैठाकर ओम् और स्वास्तिक के साथ वर्णमाला लिखकर अक्षरारम्भ कराया जाता था। इस संस्कार का सम्बन्ध बालक की बुद्धि और ज्ञान से होता था। 

उपनयन संस्कार –

हिन्दू समाज में उपनयन संस्कार का सर्वाधिक महत्व था। यह संस्कार वह होता था जिसके द्वारा बालक को आचार्य के पास ले जाया जाता था। अथर्ववेद में इस शब्द का प्रयोग ब्रह्मचर्य को ग्रहण करने के अर्थ में किया गया है। इस संस्कार को शूद्र नहीं कर सकते थे। केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को ही इसका अधिकार प्राप्त था। इस संस्कार के सम्पन्न होने के पश्चात् बालक द्विज कहलाता था। जब यह संस्कार सम्पन्न हो जाता था तो इसे बालक का दूसरा जन्म माना जाता था।

वेदारम्भ संस्कार –

इसे उपनयन संस्कार का ही एक अंग माना जाता था। इस संस्कार के द्वारा वेद और वेदांगो की शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था। वेदो के अध्ययन को शिक्षा से जोड़ा गया था जिससे बालक का नैतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास हो सके।

केशान्त संस्कार –

यह विद्यार्थी के सोलहवें वर्ष में सम्पन्न होया था। इस संस्कार में विद्यार्थी के सिर के साथ दाढ़ी के बाद भी बनवाए जाते थे। इस अवसर पर गुरू को दक्षिणास्वरूप एक गाय दी जाती थी। इसीलिए इसे गोदान संस्कार भी कहा जाता था।

समावर्तन संस्कार –

जब विद्यार्थी गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात अपने घर लौटता था तब समावर्यन संस्कार सम्पन्न होता था। इसका अर्थ है गुरु के आश्रम से अपने घर को वापस लौटना। इसको स्नान नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस अवसर पर स्नान सबसे महत्वपूर्ण कार्य था। इसी संस्कार के बाद विद्यार्थी स्नातक बनता था। 

विवाह संस्कार –

विवाह समस्त संस्कारों में गौरवशाली व महत्वपूर्ण माना जाता है। इसका प्रधान उद्देश्य वंशवृद्धि था। धर्म,  अर्थ, काम और मोक्ष इसी पर निर्भर थे, अतः विवाह को पुरूषार्थ का मूल माना जाता था। इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके अपने समस्त कर्तव्यों का अच्छी तरह से पालन करते हुए अनेक प्रकार के ऋणों से उऋण हो जाता था।

अन्त्येष्टि संस्कार –

यह संस्कार मनुष्य के जीवन का अन्तिम संस्कार था। यह संस्कार परलोक में सुख एवं शान्ति की प्राप्ति के लिए सम्पन्न किया जाता था। इस संस्कार में शव को जलाने के लिए घी का प्रयोग किया जाता था तथा वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि में आहुतियाँ देने का विधान था। जब दाहकर्म सम्पन्न हो जाता था तब व्यक्ति नदी या तालाब में स्नान करके अपने घर लौटते थे। अन्त्येष्टि संस्कार की क्रियाओं में व्यवह्यत ऋचाएँ ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में उपलब्ध होती हैं।

संस्कार व्यक्ति को धार्मिक रीति-रिवाजों, परम्पराओं एवं आचार-विचारों से परिचित कराते हैं, इससे न केवल व्यक्ति का अपितु समाज का भी नैतिक एवं सांस्कृतिक रूप से उत्कर्ष होने का मार्ग प्रशस्त होता है।


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