पोलैण्ड का विभाजन
यूरोप के इतिहास में पोलैण्ड का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था किंतु 18वीं शताब्दी में रूस, प्रशा तथा आस्ट्रिया ने अपने-अपने हितों के अनुकूल पोलैण्ड का विभाजन कर उसके राजनीतिक अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया। पोलैण्ड का यह विभाजन पूरे यूरोप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी।
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पोलैण्ड के विभाजन के कारण
पोलैण्ड की भौगोलिक स्थिति-
पोलैण्ड की सीमाएं चारों ओर से खुली हुई थी जिससे वह विदेशी शक्ति के आक्रमण का आसानी से शिकार हो सकता था। उसका साम्राज्य भी बिस्चुला नदी के मैदान तक विस्तृत था जो प्रशा, रूस एवं आस्ट्रिया जैसे राज्यों के लिए ईर्ष्या का विषय बना।
पोलैण्ड का दोषपूर्ण संविधान-
पोलैण्ड के संविधान के अनुसार पोलैण्ड में निर्वाचित राज्य की परंपरा थी। अतः शासक की मृत्यु के पश्चात पोलैण्ड के सामन्तों में से कोई भी उम्मीदवार शासक के पद के लिए खड़ा हो सकता था। चयन के लिए मत देने का भी अधिकार केवल पोलैण्ड सामन्तों को था। सामन्त धन या अपनी शक्ति से अपने वोटों का सौदा करते थे। इससे सारी शक्ति राजा के हाथ में ना होकर सामन्तों के हाथों में केंद्रित थी। इसके अतिरिक्त सामन्त वर्ग अपने स्वतंत्र संघ भी बना लेते थे।
सामाजिक एकता का अभाव -
पोलैण्ड में विभिन्न जातियों, भाषाओं एवं धर्मों के लोग रहते थे। यह लोग आपस में शत्रुतापूर्ण व्यवहार रखते थे। इस प्रकार पोलैण्ड में सामाजिक एकता का भी अभाव था।
आर्थिक स्थिति-
पोलैण्ड में कम कृषि उत्पादकता, दोषपूर्ण मुद्रा प्रचलन ने भी उसके विभाजन में अपना योगदान दिया। बाल्टिक सागर पर स्वीडन की प्रधानता थी जिससे पोलैंड के व्यापार एवं वाणिज्य को भयंकर झटका लगा था। मध्यवर्ग व किसानों की स्थिति अच्छी नहीं थी। खराब आर्थिक स्थिति के कारण सशक्त सेना का भी अभाव था जिसके कारण वह विदेशी आक्रमणों का सामना न कर सका।
पोलैण्ड की दुर्बल सैन्य व्यवस्था -
पोलैण्ड की सेना अत्यंत दुर्बल थी। उसकी सेना में कुल 18,500 सैनिक थे। जो प्रशा और आस्ट्रिया की सैन्य शक्ति से काफी दुर्बल थी।
धार्मिक स्थिति -
पोलैण्ड की अधिकांश जनसंख्या कैथोलिक थी किंतु वहां प्रोटेस्टेंट एवं यहूदी निवास करते थे। जिन्होंने समय के साथ-साथ कैथोलिकों के समान अधिकारों की मांग करना आरंभ कर दिया और अपने इन अधिकारों के लिए विदेशों से भी सहायता मांगी।
यूरोपीय शक्तियों के स्वार्थ -
यूरोपीय शक्तियों के अपने स्वार्थ भी पोलैंड के विभाजन के लिए उत्तरदायी थे। फ्रांस ने पूर्वी यूरोप में अपने प्रभाव को पोलैण्ड के माध्यम से ही बढ़ाया था। रूस पश्चिम की ओर खुली खिड़की प्राप्त करने के लिए पोलैण्ड में अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था। आस्ट्रिया पोलैंड में हस्तक्षेप कर अपनी साम्राज्यवादी लालसा को शांत करना चाहता था।
तात्कालिक कारण -
1763 ईस्वी में पोलैण्ड के शासक आगस्टस तृतीय की मृत्यु के पश्चात फ्रांस व आस्ट्रिया पोलैण्ड का शासक सैक्सनी परिवार के राजकुमार को बनाना चाहते थे वहीं रूस, प्रशा इसके विरोधी थे और दोनों ने मिलकर अपने प्रिय सामन्त स्टेनिसलास को पोलैण्ड का शासक बना दिया। स्टेनिसलास ने पोलैण्ड के संविधान में परिवर्तन कर सामंतों के लिबरल वोटों के अधिकार को समाप्त करने का प्रयास किया। इससे पोलैण्ड में गृहयुद्ध शुरू हो गया। अतः 1772 ई0 में ऑस्ट्रिया, प्रशा व रूस में पोलैण्ड के विभाजन को लेकर समझौता हो गया।
पोलैण्ड का प्रथम विभाजन (1772 ई0)
1772 ईस्वी में पवित्र त्रिमूर्ति के नाम से आस्ट्रिया, प्रशा एवं रूस के मध्य एक समझौता हुआ। इस समझौते में रूस को डयूना एवं नीपर नदियों के पूर्व का भाग, आस्ट्रिया को क्राकोनगर को छोड़कर संपूर्ण गैलेशिया, प्रशा को डान्जिग व थार्न को छोड़कर संपूर्ण पश्चिमी प्रशा प्राप्त हो गया। पोलैण्ड की संसद द्वारा 1773 ईस्वी में इस विभाजन को स्वीकार कर लिया गया।
पोलैण्ड का द्वितीय विभाजन (1793 ई0)
1793 ईस्वी में पोलैण्ड के द्वितीय विभाजन के अनुसार रूस को पूर्वी पोलैण्ड, प्रशा को डान्जिग, थार्न एवं पोसेन प्राप्त हुए। आस्ट्रिया को फ्रांस से युद्ध में उलझे रहने के कारण कोई लाभ नहीं मिला। पोलैंड के शासक स्टेनिसलास ने रूस के साथ इटरनल एलायंस की संधि की जिसके अनुसार पोलैण्ड का शासक रूस का अधीनस्थ हो गया।
पोलैण्ड का तृतीय विभाजन (1795 ई0)
1795 ईस्वी में ऑस्ट्रिया, प्रशा व रूस ने मिलकर पोलैण्ड का तीसरा विभाजन किया जिसके अनुसार आस्ट्रिया को क्राकोनगर एवं गैलेशिया का शेष भाग, प्रशा को विस्चुला नदी की घाटी का निचला भाग एवं बारसा नगर तथा रूस को पोलैण्ड का अधिकांश भाग प्राप्त हुआ।
परिणाम -
पोलैण्ड के उपरोक्त विभाजन से उसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया। यूरोप के इतिहास में अब पोलैण्ड के स्थान पर रूस का महत्व बढ़ गया।
धन्यवाद ।
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