दक्षिण भारत के दलित आन्दोलन
19वीं शताब्दी में जब भारत में पुनर्जागरण आंदोलन हुआ। उस समय समाज सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। यद्यपि यह समाज सुधार आन्दोलन धर्म एवं समाज सुधार से सम्बन्धित रहे, परन्तु इन्होंने दलित जातियों की सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कोई विशेष कार्य नहीं किया। तब दलित जातियों के कुछ जागरूक लोगों को ऐसा महसूस हुआ कि बिना स्वयं प्रयत्न किए दलित जातियों का उद्धार सम्भव नही है। अतः दलित जातियों के भारत के विभिन्न भागों में अनेक आन्दोलन हुए।
C.V .Raman Pillai |
दक्षिण भारत में दलित आन्दोलन उत्तर भारत की अपेक्षा अधिक तीव्रता से हुए। दक्षिण भारत के प्रमुख दलित आन्दोलनों में से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं -
एजवा आन्दोलन -
केरल की एजवा अछूत जाति ने ब्राह्मणों की सम्प्रभुता पर आक्रमण किया और नानू असन (जिनको नारायण गुरु के नाम से भी जानते हैं) के नेतृत्व में बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मन्दिरों में अछूतों के प्रवेश के लिए मांग की और स्वयं का संस्कृतिकरण किया। बाद में एजवा साम्यवादी विचारधारा के जबर्दस्त समर्थक हो गए।
न्याय आन्दोलन -
तमिलनाडु की जस्टिस पार्टी ने तमिलनाडु में निम्न जाति में जागरूकता पैदा कर दी। यह आन्दोलन मद्रास में 1915-16 ई. के लगभग सी.एन. मुदालियार, टी. एम. नायर और पी. त्यागराज चेट्टी द्वारा तमिल वेल्लाल, मुदालियार और चेट्टियार, तेलुगू रेड्डी, कामा, बलीजा नायडू और मालायली जातियों के पक्ष में शुरू किया गया। इस आन्दोलन में ब्राह्मणों की शिक्षा, सरकारी नौकरी और राजनीति में व्याप्त वर्चस्व एवं एकाधिकार को चुनौती दी गई। यह आन्दोलन मुख्य रूप से ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन था।
इस दल का मुख्य उद्देश्य दलित वर्गों को सामाजिक न्याय दिलाना था। जस्टिस पार्टी की ब्रिटिश सरकार में आस्था थी। इस दल के नेताओं का विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार ही उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार कर सकती है और उन्हें अच्छे पद प्रदान करके समाज में सम्मानीय स्थान उपलब्ध करा सकती है।
पालिस आन्दोलन -
उत्तरी तमिलनाडु में पालिस नामक निम्न जाति के लोग रहते थे। उन्होंने स्वयं को 1871 ईस्वी में क्षत्रिय कहना शुरू कर दिया। वे क्षत्रियों की भाँति रहने लगे और उन्हीं की भाँति व्यवहार करना शुरू कर दिया। उन्होंने स्वयं को वण्णिया कुल क्षत्रिय कहा। उन्होने उच्च जातियों की नकल करते हुए विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
स्वसम्मान आन्दोलन -
तमिलनाडु में ई. वी. रामास्वामी नायकर (जो पेरियार के नाम से भी प्रसिद्ध हैं) ने ब्राह्मण प्रभुत्व के विरुद्ध स्वसम्मान आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन में बिना ब्राह्मणों की मदद के विवाह सम्पन्न कराने की वकालत की गई। स्वसम्मान आन्दोलन मेः बलपूर्वक दलित जातियों को मन्दिरों में प्रवेश कराने का प्रयास किया गया। आन्दोलनकारियों ने मनुस्मृति को जला दिया। ई. वी. नायकर ने अपने विचारों का प्रचार करने के लिए एक तमिल पत्रिका कुदी अरासु का सम्पादन किया।
नायर आन्दोलन -
त्रावणकोर की बहुसंख्यक नायर जाति ने उन्नीसवीं शताब्दी मे नम्बूदरी ब्राह्मणों के सामाजिक और राजनीतिक प्रभुत्व के विरुद्ध एक शक्तिशाली आन्दोलन चलाया। सी. वी. रमन पिल्लई ने 1891 ई. में मलयाली मेमोरियल संगठित किया जिसने सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध किया। सी. वी. रमन पिल्लई ने अपने उपन्यास मार्तण्ड वर्मा में नायरों की सैनिक महानता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। बीसवीं शताब्दी में के. रामकृष्ण पिल्लई और एम. पद्मनाभ पिल्लई ने नायर आन्दोलन को गति प्रदान की। के. रामकृष्ण पिल्लई ने स्वदेशाभिमानी का 1906 से 1919 ई. तक सम्पादन किया। एम. पद्मनाभ पिल्लई ने 1914 ई. में नायर सर्विस सोसायटी की स्थापना की। जिसने नायरो के सामाजिक और राजनीतिक उत्थान के लिए उल्लेखनीय कार्य किए।
नादर आन्दोलन -
दक्षिण तमिलनाडु के रामनद जिले की शानन नामक अछूत जाति जिसमें ताड़ी निकालने वाले और कृषि श्रमिक सम्मिलित थे, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक सम्पन्न व्यापारिक वर्ग में बदल गई और उन्होंने अपने को नादर कहना शुरू किया। अब वे क्षत्रियों की भाँति व्यवहार करने लगे। उन्होंने 1910 ई. में नादर महाजन संघ संगठित किया और संस्कृतिकरण करने लगे।
तमिलनाडु में अन्य दलित जातियाँ थीं, जिन्होंने मन्दिरों में प्रवेश करने का प्रयास किया। मद्रास के तमिल वेल्लाल, आन्ध्र प्रदेश के तेलुगू रेड्डी और कम्मों ने ब्राह्मण सम्प्रभुता के विरुद्ध आवाज उठाई।
धन्यवाद।
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