अकबर की धार्मिक नीति

अकबर का बाल्यकाल अधिक उदार वातावरण में बीता था।उसकी माता हमिदाबानू शिया थी। अकबर का जन्म एक राजपूत राजा के महल में हुआ था। अकबर का संरक्षक बैरमखाँ शिया था और उसका भी उदार प्रभाव अकबर पर पड़ा था। बैरमखाँ ने अकबर का शिक्षक प्रसिद्ध विद्वान अब्दुल लतीफ को नियुक्त किया था जो अपने उदार विचारों के लिए जाना जाता था। उसने अकबर को सुलहकुल का पाठ पढ़ाया। इस प्रकार किशोरावस्था में अकबर पर उदारवादी धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा था।

religious policy of Akbar
akbar

अकबर का धार्मिक चिंतन -

अकबर किशोरावस्था से ही शेखों और संतों से प्रायः मिलता था और उनके प्रति श्रद्धा रखता था। वह स्वभाव से जिज्ञासु था और एकांत में आध्यात्मिक समस्याओं पर चिंतन करता था। उस पर तत्कालीन सूफी और भक्ति आंदोलन का भी प्रभाव पड़ा। अकबर में सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति और धर्म के सत्य को जानने की जिज्ञासा बचपन से थी।
अकबर की धार्मिक नीति को अध्ययन की दृष्टि से तीन चरणों में बांटा गया है-

 प्रथम चरण -

  • 1562 ईस्वी में अकबर ने आज्ञा जारी करके युद्ध बंदियों को गुलाम बनाने की प्रथा पर रोक लगा दी।
  • 1563 ईस्वी में उसने साम्राज्य के विभिन्न तीर्थस्थानों में तीर्थयात्रियों से लिए जाने वाले कर की वसूली बंद कर दी।
  • 1564 ईस्वी में अकबर ने जजिया कर हटा दिया।

द्वितीय चरण -

1565 ईस्वी से 1575 ईस्वी के 10 वर्षों में अकबर को अनेक युद्धों में तथा विद्रोह के दमन में आश्चर्यजनक सफलता मिलीं। इससे उसे विश्वास हो गया कि उस पर विशेष दैवी अनुकम्पा थी। उसकी रहस्यवादी और सूफी भावनाओं पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा और धर्म में उसकी जिज्ञासा बढ़ गई।

इबादतखाना का निर्माण -

  • 1575 ईस्वी में अकबर ने इबादतखाना का निर्माण कराया।इसमें आलिमों, फकीरों तथा सूफियों को एकत्रित किया गया।
  • प्रत्येक बृहस्पतिवार की रात में अकबर उनके प्रवचन सुनता था।
  • प्रारम्भ में इबादतखाने में केवल सुन्नी विद्वानों को ही स्थान दिया गया था। 
  • 1578 ईस्वी में इबादतखाने को सभी धर्मों के लिए खोल दिया गया। अब इबादतखाने में ईसाई, पारसी, हिंदू, जैन धर्म के विद्वानों को, यहाँ तक कि नास्तिकों को भी निमंत्रित किया गया।

महजर की घोषणा -

  • उलेमा को अपनी शक्ति के अन्तर्गत लाने के लिए अकबर ने 26 जून, 1579 ईस्वी को फतेहपुर सिकरी की जामा मस्जिद में खुतवा पढ़ने का साहस दिखाया। 
  • धार्मिक सत्ता को प्राप्त करने के लिए उसका दूसरा कार्य महजर नामक दस्तावेज जारी करना था। 
  • महजर जारी करने की प्रेरणा उसे शेख मुबारक, फैजी और अबुलफजल ने दी थी। 
  • 2 सितंबर, 1579 ईस्वी को महजर जारी किया गया जिस पर सभी विद्वानों के हस्ताक्षर थे। 
  • महजर में अकबर को यह अधिकार दिया गया कि यदि किसी विषय पर उलेमा में मतभेद हों और वे परस्पर  विरोध मत व्यक्त करें तो वह साम्राज्य के हितों को ध्यान में रखते हुए जिस मत को सर्वोत्तम समझे, मान्यता दे सकता है।

तीसरा चरण -

  • 1582 ईस्वी में अकबर ने इबादतखाना बन्द कर दिया और काबुल अभियान से लौटने के बाद उसने दीन ए इलाही की योजना अपने अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत की। 
  • दीन ए इलाही एक धर्म नहीं था वरन दीन ए इलाही एक प्रकार से केवल सूफी विचारधारा मात्र थी  जिसे किसी भी धर्म के अनुयायी स्वीकार कर सकते थे। 
  • इसके सिद्धांतों से प्रकट होता है कि यह सभी धर्मों का सार था, स्वयं धर्म नहीं। 
  • अकबर स्वयं शिष्यों का चयन करता था। 
  • अबुलफजल दीन ए इलाही  का पुरोहित था। 
  • धर्म में कोई पवित्र ग्रंथ या पुरोहित वर्ग नहीं था।
  • बदायूंनी के अनुसार दीन ए इलाही मत के अनुयायी चार वर्गों में विभाजित थे जो उनके त्याग पर आधारित था। 
  • उन्हें सम्राट  की सेवा के लिए धन संपत्ति, मान-सम्मान, जीवन और धर्म का बलिदान करना पड़ता था। 
  • इनमें से एक का त्याग करने वाला पहला पद, दो का त्याग करने वाला दूसरा पद, तीन और चारों को त्याग करने वाले तीन या चार पद वाले होते थे। 
  • धर्म त्याग का अर्थ संकीर्णता का त्याग होता था। ये चारों स्थितियाँ सूफियों के सोपानों के समान थी। 
  • अकबर ने दीन ए इलाही का प्रचार नहीं किया और न इसके लिए किसी प्रकार का प्रलोभन दिया। 
स्मिथ के अनुसार "दीन ए इलाही अकबर की मूर्खता का प्रतीक था ना की बुद्धिमानी का।"

धन्यवाद।

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