हुमायूं की कठिनाइयाँ
हुमायूं 30 दिसम्बर, 1530 ईस्वी में सिंहासन पर बैठा। हुमायूं को उत्तराधिकार में एक विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था जो मध्य एशिया में आमू नदी से उत्तरी भारत में बिहार तक विस्तृत था लेकिन इस विशाल साम्राज्य की आधारशिला दुर्बल थी और आंतरिक रूप से इसमें संगठन या शक्ति का अभाव था। अतः राज्यारोहण के बाद ही हुमायूं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
Humayun's tomb |
आन्तरिक कठिनाइयां
साम्राज्य का दुर्बल स्वरूप बाबर ने जिस साम्राज्य की स्थापना की थी उसमें संगठन और प्रशासन की स्थिति अत्यन्त दुर्बल थी। बाबर ने भारत में चार युद्ध किए थे, इन सैनिक विजयों पर ही उसका साम्राज्य टिका हुआ था। वास्तव में हुमायूं को बाबर से इस प्रकार का राज्य प्राप्त हुआ था जिसे युद्ध की स्थिति में ही बनाए रखा जा सकता था। हुमायूं को युद्ध की अपेक्षा शान्ति अधिक प्रिय थी। अतः साम्राज्य का दुर्बल स्वरूप हुमायूं के लिए सबसे बड़ी समस्या थी।
मुगल सेना की दुर्बलता
मुगल सेना में उजबेग, मुगल, तुर्क, ईरानी, अफगान और हिन्दुस्तानी सभी सम्मिलित थे। युद्ध में विजय प्राप्त करने तथा साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए सेना में एकता आवश्यक थी। इस प्रकार की एकता को बाबर ने अपने श्रेष्ठ सेनानायक गुण के आधार पर प्राप्त कर लिया था। हुमायूं उनके परस्पर विरोधी परामर्शों के कारण अनेक संकटों में फस गया।
हुमायूं के ईर्ष्यालु भाई
उत्तराधिकार नियम के अभाव के कारण भी हुमायूं की कठिनाइयाँ बढ़ गई थीं। कामरान सबसे महत्वाकांक्षी था। बाबर ने भी कामरान को लगभग हुमायूं के बराबर ही वरीयता दी थी। हुमायूं की उदारता का उसके भाइयों ने अनुचित लाभ उठाया और उसके संकटों में वृद्धि की।
मिर्जा वर्ग का विरोध
तैमूर के वंशजों को मिर्जा कहा जाता था। इनमें मुहम्मद जमान मिर्जा प्रमुख था जो बाबर की पुत्री मासूमा बेगम और हुमायूं की सौतेली बहन का पति था। दूसरा मुहम्मद सुल्तान मिर्जा था जो सुल्तान हुसैन बैकरा की पुत्री का पुत्र था। ये दोनों स्वयं को बाबर के पुत्रों के बराबर समझते थे। सिंहासन का दावेदार मेंहदी ख्वाजा भी था जो बाबर का बहनोई था। हुमायूं के लिए मिर्जा वर्ग ने अनेक समस्याएँ उत्पन्न कीं।
रिक्त राजकोष
साम्राज्य की दृढ़ता के लिए राजकोष आवश्यक था और यह भी आवश्यक था कि आय नियमित रूप से हो। बाबर ने आगरा के कोष को उदारता से सैनिकों तथा अधिकारियों में बांट दिया था। उसने राजस्व की कोई व्यवस्था स्थापित नही की और इसका प्रबंध जमींदारों पर छोड़ दिया। स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि बाबर अपनी सेना को वेतन भी नही दे सका। हुमायूं भी आर्थिक मामलों में मितव्ययी नही था। इससे आर्थिक स्थिति खराब होती गई।
बाह्य कठिनाइयाँ
हुमायूं के समक्ष आन्तरिक कठिनाइयों के अतिरिक्त बाह्य संकट भी थे जिनके कारण उसकी स्थिति संकटापन्न हो गई थी।
- अफगान पराजित हो गये थे लेकिन उनकी शक्ति पूर्णतया नष्ट नही हुई थी। बाबर ने भरसक प्रयत्न किया कि अफगान उसकी अधीनता स्वीकार कर लें। उसने अफगान अमीरों को जागीरों पर बने रहने दिया था और कुछ की जागीरें बदल दी थीं। लेकिन अफगान अपनी सल्तनत को पुनः स्थापित करने के लिए बिहार में एकत्रित हो गए थे और उन्होंने महमूद लोदी को अपना सुल्तान घोषित कर दिया था। महमूद लोदी के बाद शेरखाँ इन असंतुष्ट अफगानों का नेता बन गया।
- गुजरात का महत्वाकांक्षी सुल्तान बहादुरशाह था। धन की प्रचुरता, पुर्तगालियों की तोप तथा गोला-बारूद आदि की सहायता ने उसकी महत्वाकांक्षा को तीव्र कर दिया था। उसने हुमायूं के प्रतिद्वंद्वी मिर्जा लोगों को भी शरण दी थी और उन्हें सैनिक सहायता प्रदान करके वह आगरा और दिल्ली को भी अपनी अधीनता में लाना चाहता था।
- बंगाल का सुल्तान नुसरतशाह अफगानों का समर्थक था। उसने इब्राहिम लोदी की पुत्री से विवाह करके दिल्ली के सिंहासन पर अपना दावा स्थापित कर दिया था। हुमायूं ने इस समस्या को वास्तविक रूप से नही समझा। उसकी सुरक्षा बिहार और बंगाल के पृथक रखने में थी। दुर्भाग्य से हुमायूं की गलतियों से शेरखाँ ने बंगाल पर भी अधिकार कर लिया जिससे उसकी शक्ति में वृद्धि हुई और हुमायूं को अंततः साम्राज्य खोना पड़ा।
- सिंध के अरघुन शासक बाबर के विरोधी थे क्योंकि बाबर ने उनसे काबुल छीन लिया था। हुमायूं की दुर्बलता से लाभ उठाकर तथा यह देखकर कि बादशाह गुजरात और बंगाल में फँसा है, अरघुन शासक स्वतंत्र हो गये और बाद में उन्होंने कामरान से सम्बन्ध स्थापित कर लिये।
- बाबर की खानवा तथा चंदेरी की विजयों से राजपूतों की शक्ति लगभग समाप्त हो गई थी। 1531 ई. में रत्नसिंह मेवाड़ का शासक बना। उसका रानी कर्णवती ने विरोध किया और उसने हुमायूं से सहायता मांगी। हुमायूं को राजस्थान की ओर से तत्कालिक कोई संकट नही था। लेकिन उस समय राजस्थान के बारे में हुमायूं को सकारात्मक नीति अपनाना आवश्यक था जिससे बहादुरशाह को नियंत्रित किया जा सके।
व्यक्तिगत कठिनाइयाँ
हुमायूं में एक योग्य सेनानायक, कूटनीतिज्ञ तथा प्रशासक के गुण का अभाव था। हुमायूं ने युद्ध पर शान्ति को सर्वदा वरीयता दी और युद्ध की सम्भावना में भी शान्ति की खोज का प्रयास करता रहा। यह उसका अव्यावहारिक दृष्टिकोण था और उसके शत्रुओं ने इसका लाभ उठाया। हुमायूं के चरित्र की सबसे बड़ी दुर्बलता समय और स्थिति के अनुकूल दृढ़ और कठोर नीति का न होना था। यही कारण है कि उसने अपनी व्यक्तिगत दुर्बलताओं से साम्राज्य की समस्याओं को अधिक जटिल बना दिया और स्वयं अपरिमित कष्ट उठाये।
धन्यवाद।
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