वेदोत्तर काल में ऋण व्यवस्था
वेदोत्तर काल में व्यापार और वाणिज्य की उन्नति के साथ-साथ सिक्कों का भी प्रचलन प्रारम्भ हुआ जिसके कारण महाजनी का व्यवसाय भी समृद्ध हुआ। इस काल में पहली बार ऋणों से सम्बन्धित नियम बनाए गए। जिनका पता हमें धर्मसूत्रों, पाणिनी अष्टाध्यायी तथा बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों से चलता है।
Post Vedic Credit System |
ऋण के विभिन्न प्रकारों तथा उससे सम्बन्धित दरों के विवरण हमें सर्वप्रथम गौतम धर्मसूत्र में मिलते हैं। गौतम ने 6 प्रकार के ब्याजों का उल्लेख किया है-
चक्रवृद्धि -
मूलधन के अतिरिक्त ब्याज पर देय ब्याज को धर्मशास्त्रकारों ने चक्रवृद्धि नाम दिया है। पाणिनी ने चक्रवृद्धि के लिए प्रबृद्ध और इस ब्याज की अन्तिम सीमा के लिए महाप्रबृद्ध शब्दों का प्रयोग किया है।
कालवृद्धि -
इसमें ऋण देने के समय इसकी दर और अदायगी की समयसीमा निर्धारित कर दी जाती थी। नारद के अनुसार जिस ब्याज से प्रतिवर्ष लाभ हो, उसे कालवृद्धि कहते हैं।
कारितवृद्धि -
इसमें ऋणदाता ब्याज की मनमानी दर निश्चित कर देता था जो ऋणी को स्वीकार्य होती थी।
कायिकावृद्धि -
यह ब्याज शारीरिक श्रम द्वारा चुकाया जाता था। ऋणी व्यक्ति निर्धनता के कारण जब कर्ज अदा करने में असमर्थ होता था, तो वह ऋणदाता के खेत अथवा घर में नौकर के रूप में काम करके ऋण की अदायगी करता था। परन्तु यह नियम अपने से ऊँची जाति के कर्जदार पर लागू नहीं होता था। उच्च वर्ण के ऋणी से उसकी आमदनी के अनुसार आसान किश्तों में ऋण/ब्याज वसूलने का नियम था।
शिखावृद्धि -
यह ब्याज वालों की शिखा की भांति निरन्तर बढ़ता रहता था। बृहस्पति के अनुसार शिखावृद्धि ब्याज मूलधन की अदायगी होने तक देय होता है।
आधिभोग वृद्धि -
ऋण के लिए बंधक रखी वस्तु का ऋणदाता द्वारा ब्याज के रूप में उपभोग करने को आधिभोग नाम दिया गया है। पाणिनी ने इसके लिए धेनुष्या शब्द का प्रयोग किया है।
इस काल में बड़े पैमाने पर सिक्कों के प्रचलन के कारण सिक्के भी ब्याज पर उधार दिये जाने लगे थे और उन पर देय ब्याज का भुगतान भी सिक्कों द्वारा ही किया जाता था। धर्मसूत्रों में सिक्कों के रूप में ऋण एवं ब्याज अदा करने के उल्लेख मिलते हैं। किन्तु इसके साथ-साथ पूर्ववर्ती कालों की भांति वस्तुओं को ब्याज पर उधार देने की प्रथा भी प्रचलित थी। पिंडनिर्युक्ति में अनाज और तेल ब्याज पर देने का उल्लेख मिलता है। अष्टाध्यायी से भी इस विषय में उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है। पाणिनी ने ऋण, ऋणी, ऋणदाता एवं ब्याज की दरों के अतिरिक्त वार्षिक तथा छमाही के लिए दिये जाने वाले ऋणों का भी उल्लेख किया है।
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