मौर्यकालीन जलमार्ग 

मौर्यकालीन व्यापार और वाणिज्य की उन्नति, साम्राज्य की सुरक्षा और सैनिक दृष्टि से भी यह आवश्यक था कि मार्गों के विकास पर समुचित ध्यान दिया जाये। इसलिए इस काल में मार्गों के विकास पर बहुत ध्यान दिया गया। 

Mauryan waterways
Mauryan Empire 

मौर्यकाल में सामान्यतः दो प्रकार के मार्ग थे, एक वारिपथ (जलमार्ग) और दूसरा स्थल पथ (स्थल मार्ग)। कौटिल्य ने जलमार्ग को दो श्रेणियों में विभाजित किया है- एक कूलपथ (समुद्र का तटवर्ती पथ) और दूसरा सयान पथ (महासमुद्र का मार्ग)। लेकिन इन दोनों में कौटिल्य ने पहली श्रेणी के मार्गों को प्रधानता दी है क्योंकि अधिक बन्दरगाहों तक उनकी पहुंच होने के कारण वे अधिक लाभ के स्रोत होते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य तीसरा जलमार्ग नदियों का था। इसमें भी कुछ ऐसे गुण हैं जो अन्य जलमार्गों में नहीं पाये जाते, क्योंकि एक तो इसका सदा प्रयोग किया जा सकता है और दूसरा इसमें बाधाएं और खतरे भी नहीं होते।

इस काल में आन्तरिक व्यापार का अधिकांश भाग नदियों द्वारा होता था। जहाँ नदी मार्ग उपलब्ध रहता था, वहाँ व्यापारी स्थल मार्ग छोड़ देते थे। व्यापारी लोग सामान्यतः वाराणसी से ताम्रलिप्ति तक जो पूरब की ओर का एक बड़ा बन्दरगाह था, नदी मार्ग से यात्रा करते थे। गंगा, यमुना, सरयू, सोन, गण्डक, कोसी, कृष्णा, कावेरी, तुंगभद्रा, महानदी तथा गोदावरी आदि का उपयोग उस समय व्यापार के लिए किया जाता था। कुम्हार नामक स्थान की खुदाई से पता चलता है कि चुनार से भारी-भारी बलुआ पत्थर या स्तम्भ गंगा द्वारा पाटलिपुत्र लाए गए थे। नदियों के अतिरिक्त नहरों (कुल्याओं) का भी जलमार्ग के रूप में प्रयोग होता था। नहर सदृश कृत्रिम  (मनुष्यकृत) जलमार्गों के लिए कुल्या शब्द का प्रयोग किया है। व्यापारी लोग माल ले जाने के लिए उनका भी उपयोग करते थे। ऐसी कुल्याओं को भाण्डवाहिनी ( जिसमें माल ले जाया जा सके) कहते थे।

यद्यपि कौटिल्य के अनुसार जलमार्गों में अनेकविध संकटों का सामना करना पड़ता है और इस काल में उन्हें निरापद भी नहीं समझा जाता था, तथापि आने-जाने और माल ढ़ोने के लिए उनका उपयोग प्रमुख रूप से किया जाता था। 

कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक प्रकार की नौकाओं का उल्लेख मिलता है-

संयातीः नाव –

ये बड़े जहाज होते थे, जिनका उपयोग संयान-पथों (महासमुद्र के जलमार्गों) पर किया जाता था। कौटिल्य के अनुसार जब कोई संयाती नाव क्षेत्र  (बन्दरगाह) पर पहुंचे, तो उससे शुल्क वसूल किया जाए। 

प्रवहण –

यह भी समुद्र में आने-जाने वाले जहाज की संज्ञा थी। सम्भवतः व्यापारिक जहाजों को प्रवहण कहा जाता था। उत्तराध्ययनसूत्र टीका के अनुसार सामुद्रिक व्यापारी प्रवहणों द्वारा महासमुद्रों को पार करते हैं।

महानाव –

महानदियों में बड़ी-बड़ी नौकाएं प्रयुक्त होती थीं। इनका उपयोग नावाध्यक्ष के अधीन होता था। जो नदियाँ इतनी बड़ी हों कि ग्रीष्म और हेमन्त ऋतुओं में ( जबकि नदियों में जल की कमी हो जाती है) भी उन्हें अन्य प्रकार से पार न किया जा सके, उनको पार करने के लिए नावाध्यक्ष की ओर से ऐसी महानावें प्रयुक्त करायी जाती थीं।

शंखमुक्ताग्राहिणः नाव –

समुद्र से शंख और मोती निकालने के लिए विशेष प्रकार की नौकाएँ होती थीं, जिन्हें शंखमुक्ताग्राहिणः नाव कहते थे।

आप्तनाविकाधिष्ठिता नाव –

राजा कैसे यानों और वाहनों का प्रयोग करे, इसका निरूपण करते हुए कौटिल्य ने लिखा है कि जिस नाव पर आप्त (नौकायन में पारंगत) नाविक बैठा हो और जिसके साथ एक अन्य नौका बंधी हुई हो, राजा उसी का प्रयोग करे। जो नौका वायु के वेग के वश में आ सके, उसका उपयोग न करे। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में राजकीय उपयोग के लिए विशेष प्रकार की नौकाएं होती थीं, जिन्हें पूर्णतया सुरक्षित रूप से बनाया जाता था।

हिंस्रिकाः नाव –

इस काल में भी सामुद्रिक डाकुओं की सत्ता थी, जो तेज चलने वाली नौकाओं पर चढ़कर व्यापारी जहाजों को लूटने में तत्पर रहा करते थे। इनकी नौकाओं को ही हिंस्रिका कहते थे। कौटिल्य ने नावाध्यक्ष को आदेश दिया कि हिंस्रिका नौकाओं को नष्ट कर दिया जाए।

क्षुद्रकाः नाव –

यह छोटी नौकाएँ छोटी नदियों में काम आती थीं। कौटिल्य ने दो प्रकार की नदियों का उल्लेख किया है, एक हेमन्तग्रीष्मतार्या (हेमन्त और ग्रीष्म ऋतुओं में भी जिनमें प्रचुर मात्रा में जल रहे) और दूसरी वर्षास्राविणी (जिनमें केवल वर्षा ऋतु में ही प्रचुर मात्रा में जल रहे)। हेमन्तग्रीष्मतार्या महानदियां होती थी और वर्षास्राविणी क्षुद्र नदियाँ। क्षुद्रक नावों का प्रयोग इन्हीं क्षुद्रिका नदियों में किया जाता था।

राजानौः या राजकीय नौकाएँ –

नदियों के पार उतरने के लिए राज्य की ओर से जिन नौकाओं की व्यवस्था की जाती थी या जलमार्गों से यात्रा करने और माल ले जाने के लिए राज्य जो नौकाएँ रखता था, उन्हें राजानौः कहते थे।

स्वतरणानि –

राजकीय नौकाओं के अतिरिक्त ऐसी नौकाएँ भी होती थीं जिन पर व्यक्तियों का स्वत्व होता था। इन्हें स्वतरणानि कहते थे।

लेकिन आन्तरिक व्यापार में अधिकतर महानाव और क्षुद्रका नाव ही प्रयुक्त होती थी।

धन्यवाद



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