मौर्यकालीन स्थलमार्ग
मौर्यकाल में चार प्रमुख राजमार्ग थे, पाटलिपुत्र से उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम की ओर जाते थे। ये चारों मार्ग जहाँ व्यापार के काम में आते थे, वहाँ सैनिक दृष्टि से भी इनका बहुत महत्व था। इन चार बड़े मार्गों से बहुसंख्यक उपमार्ग निकलते थे जो छोटे-छोटे नगरों को मिलाते थे।
Mauryan Empire |
मौर्यकाल के इन स्थलपथों के सम्बन्ध में ग्रीक यात्रियों ने उस राजमार्ग का वर्णन किया है जो पाटलिपुत्र से पश्चिम की ओर सिन्धु नदी या उससे भी परे तक जाता था और जो पाटलिपुत्र से पूर्व की ओर बंगाल की खाड़ी तक जाता था। यह उस समय की ग्रांड ट्रंक रोड़ थी, जिसकी लम्बाई 10,000 स्टेडिया थी। यह सड़क अनेक भागों में बनाई गई थी। जिसका विवरण निम्न प्रकार है –
- प्यूकेलाओटिस ( संस्कृत में पुष्कलावती, गान्धार की राजधानी, आधुनिक चारसद्दा) से तक्षशिला तक।
- तक्षशिला से सिन्धु नदी को पार कर हाइडेस्पीज (झेलम) तक
- हाइफेसिस (व्यास) के किनारे से उस स्थान तक जहाँ सिकन्दर ने अपनी वेदियाँ बनवाई थीं।
- व्यास से हेसिड्रस (सतलुज) तक।
- सतलुज से इयोमेनीज (यमुना) तक।
- यमुना से हस्तिनापुर होती हुई गंगा तक।
- गंगा से रोडोफा नामक स्थान तक ( कहा जाता है कि यह वही स्थान है, जहाँ आजकल अनूपशहर के निकट उभाई नामक स्थान है)।
- रोडोफा से कलिनपैक्सा ( कन्नौज) तक।
- कन्नौज से प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम तक।
- प्रयाग से पाटलिपुत्र तक।
- पाटलिपुत्र से गंगा के मुहाने पर कदाचित ताम्रलिप्ति तक।
मार्गों का निर्माण राज्य द्वारा ही कराया जाता था और हर दस स्टेडिया की दूरी पर पत्थर तथा दिशासूचक तख्तियाँ लगवाते थे।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में निम्नलिखित अन्य मार्गों का भी उल्लेख मिलता है –
राष्ट्रपथ –
जनपद की राजधानी से जो मार्ग जनपद के अन्य विविध क्षेत्रों में जाते थे, उन्हें राष्ट्रपथ कहते थे।
स्थानीय पथ –
प्रत्येक जनपद अनेक स्थानीय पथों में विभक्त था। एक स्थानीय में प्रायः 800 ग्राम हुआ करते थे। स्थानीय के मध्य में एक स्थानीय दुर्ग होता था। जनपद की राजधानी से स्थानीय दुर्गों को जो मार्ग मिलाते थे, उन्हें स्थानीय पथ कहते थे।
द्रोणमुख पथ –
द्रोणमुख में प्रायः 400 ग्राम हुआ करते थे। सम्भवतः छोटे आकार वाले स्थानीय को ही द्रोणमुख कहा जाता था। स्थानीय के समान द्रोणमुख का भी एक केन्द्र होता था। जनपद की राजधानी से द्रोणमुख – दुर्ग को मिलाने वाले मार्ग को द्रोणमुख पथ कहते थे।
विवीत पथ –
जनपद में अनेक चरागाह (विवीत) हुआ करते थे जिनका उन युगों में बहुत महत्व था। विवीतों को जाने वाले मार्गों को विवीत-पथ कहते थे।
सेतु पथ –
जनपद में जो सेतुबन्ध थे उन तक जाने वाले मार्ग को सेतु पथ कहा जाता था।
वन पथ –
जंगल के मार्गों की संज्ञा वन पथ थी।
हस्तिक्षेत्र पथ –
जनपदों में हाथी पालने के लिए पृथक हस्ति क्षेत्र सुरक्षित रखे जाते थे उनको जाने वाले मार्गों को हस्ति क्षेत्र पथ कहते थे।
महापशु पथ –
गाय, भैंस, घोड़ा और ऊंट आदि बड़े पशुओं के प्रयोग के लिए निर्मित मार्गों की संज्ञा महापशु पथ थी।
क्षुद्रपशु पथ –
भेड़ , बकरी आदि छोटे पशुओं के मार्ग क्षुद्रपशु पथ कहलाते थे।
मनुष्य पथ –
पैदल चलने वाली मनुष्यों की पगडंडी को मनुष्य पथ कहते थे।
श्मशान पथ –
शमशान जाने वाले मार्ग को शमशान पथ कहते थे।
ग्राम पथ –
ग्रामों को परस्पर मिलाने वाले मार्ग ग्राम पथ कहलाते थे।
सयोनीय पथ –
ऐसे मार्ग जो एक स्थान से पृथक हो पुनः एक स्थान पर मिल जाएँ।
रथ पथ –
रथ आदि गाड़ियों के लिए प्रयुक्त होने वाले मार्ग।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार सेतुपथ और वनपथ की चौड़ाई चार दण्ड (एक दण्ड = दो गज) और हस्तिक्षेत्र पथ की चौड़ाई दो दण्ड होती थी। रथ पथ चौड़ाई में पांच अरत्नि (एक दण्ड = चार अरत्नि) और पशुपथ चार अरत्नि चौड़ा था। क्षुद्र पशु पथ और मनुष्य पथ की चौड़ाई दो अरत्नि होती थी। राष्ट्र पथों, स्थानीय पथों, द्रोणमुख पथों और विवीत रथों की चौड़ाई चार दण्ड होती थी।
मौर्यकाल के मार्गों का इतना अधिक महत्व था कि इन्हें किसी प्रकार से क्षति पहुंचाने पर कठोर दण्ड दिया जाता था। क्षुद्र पथ, पशु पथ और मनुष्य पथ को क्षति पहुंचाने पर 12 पण, महापशु पथ को क्षति पहुंचाने पर 24 पण, हस्तिक्षेत्र पथ को क्षति पहुंचाने पर 54 पण, सेतुपथ और वनपथ को क्षति पहुंचाने पर 60 पण, शमशान पथ और ग्राम पथ को क्षति पहुंचाने पर 200 पण, द्रोणमुख पथ को क्षति पहुंचाने पर 500 पण और स्थानीय पथ, राष्ट्र पथ और विवीत पथ को क्षति पहुंचाने पर 1,000 पण जुर्माने का दण्ड दिया जाता था।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेकविध यानों का भी उल्लेख मिलता है, जिनका प्रयोग स्थल मार्गों पर किया जाता था। ये यान पारियाणिक रथ (यात्रा के लिए प्रयुक्त होने वाला रथ), सांग्रामिक रथ (युद्ध के उपयोग में आने वाला रथ), पुरपुराभियानिक रथ (शत्रुओं के दुर्गों पर आक्रमण के लिए प्रयुक्त होने वाला रथ), वैयनिक रथ (जिनका उपयोग सैनिक शिक्षा के लिए किया जाए), देवरथ (देवमूर्तियों की यात्रा के लिए प्रयुक्त होने वाला रथ), पुष्प रथ ( उत्सवों में काम आने वाला रथ), लघुयान (छोटी गाड़ी), गोलिड्ग यान (बैलगाड़ी), शकट (माल ढ़ोने वाली गाड़ी), शिविका (पालकी) और पीठिका (डोली) होते थे। इनके अतिरिक्त हस्ति, अश्व और ऊंट का भी सवारी और माल ढ़ोने के लिए वाहन के रूप में प्रयोग किया जाता था।
इस प्रकार मौर्यकाल में विविध प्रकार के स्थल मार्गों की सत्ता थी। वर्तमान समय में जिन स्थल मार्गों को ग्रान्ड ट्रंक रोड़ कहा जाता है, उनका पूर्व रूप उस समय में भी विद्यमान था।
धन्यवाद
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