अकबर की राजपूत नीति
मुगल साम्राज्य के विस्तार तथा सुदृढ़ीकरण में अकबर की राजपूत नीति का महत्वपूर्ण योगदान था। उसने यह भली-भाँति समझ लिया था कि शक्तिशाली, शूरवीर राजपूतों के सहयोग के बिना हिन्दुस्तान में स्थायी राज्य की स्थापना असम्भव है। उसके पूर्ववर्ती शासकों ने राजपूतों से दीर्घकालीन भीषण युद्ध किए थे लेकिन वे राजस्थान पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में असफल रहे थे। राजपूतों के साथ इस संघर्ष में उन शासकों को अपरिमित जन-धन की हानि उठानी पड़ी थी। अतः अकबर ने ऐसी राजपूत नीति का विकास किया जिससे वह राजपूतों का सहयोग प्राप्त कर सके और उनके सहयोग से ऐसा साम्राज्य स्थापित करे जो शान्ति व सहयोग पर आधारित हो क्योंकि ऐसा साम्राज्य ही स्थायी हो सकता था।
Akbar Empire |
अकबर की उदार राजपूत नीति के कारण –
साम्राज्य का स्थायित्व –
गत 350 वर्षों के इतिहास से स्पष्ट हो गया था कि राजपूतों के साथ निरन्तर युद्ध करके साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान नहीं किया जा सकता था। अतः आवश्यक था कि उनको साम्राज्य का सहयोगी बनाया जाए। अतः राजपूतों से मित्रता राजनीतिक आवश्यकता थी।
शक्ति सन्तुलन की आवश्यकता –
अकबर को प्रारम्भ से ही तूरानी अमीरों तथा अफगानों के विद्रोह का सामना करना पड़ा था। इनके विद्रोह तथा महत्वाकांक्षा से अकबर को स्पष्ट हो गया था कि वह इन अमीरों पर निर्भर नहीं रह सकता। अतः ऐसे विद्रोही और विश्वासघाती तत्वों पर अंकुश लगाने के लिए राजपूतों की सैनिक शक्ति ही सक्षम थी।
प्रशासनिक-आर्थिक आवश्यकता –
भारत में तुर्की शासन की स्थापना के बाद से तुर्क शासक वर्ग तथा स्थानीय जमींदार वर्ग में तनाव तथा संघर्ष होता रहता था। स्थानीय जमींदार वर्ग प्रायः सभी राजपूत थे और स्थानीय राजनीतिक, सैनिक तथा राजस्व संग्रह की शक्तियाँ उनके हाथों में केन्द्रित थीं। अकबर ने इन स्थानीय जमींदारों से तथा विस्तृत रूप में राजपूत राजाओं से समझौता किया। इससे शान्ति स्थापित हुई, राजस्व संग्रह नियमित तथा शान्तिपूर्वक हुआ।
मुगल साम्राज्य का विदेशी स्वरूप –
अकबर मुगल साम्राज्य के विदेशी स्वरूप को समाप्त करके उसे स्वदेशी स्वरूप देना चाहता था इसलिए उसने राजपूतों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक समझा।
धार्मिक उदारता का प्रभाव –
अकबर की राजपूत नीति का आधार उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति थी। इसके बिना उसकी राजपूत नीति सफल नहीं हो सकती थी। उसने धार्मिक करों को हटाकर हिन्दुओं तथा राजपूतों के असन्तोष का मुख्य कारण हटा दिया। उसने धर्म परिवर्तन को रोक दिया और राज्य के इस्लामी स्वरूप को अस्वीकार कर दिया। इससे राजपूतों को समानता और सम्मान प्राप्त हुआ। इस उदार धार्मिक नीति का कारण राजपूत गृह में उसका जन्म होना, उदार मुस्लिम विद्वानों का उस पर प्रभाव एवं राजपूत पत्नियों का प्रभाव आदि था।
भौगोलिक कारण –
राजस्थान दिल्ली के दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम का प्रदेश है। दिल्ली और पंजाब से गुजरात, मालवा जाने के मार्ग राजस्थान से मिलते हैं। इन मार्गों की सुरक्षा आवश्यक थी और दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र में शान्ति रखना आवश्यक था। इससे अकबर पूर्व, पश्चिम और दक्षिण के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में साम्राज्य का विस्तार तथा उन पर नियन्त्रण रख सकता था। अतः अकबर की राजपूत नीति राजस्थान से धन प्राप्त करने की नहीं थी बल्कि शान्ति स्थापित करने की थी।
अकबर की राजपूत नीति का स्वरूप –
1562 ई० से अकबर की राजपूत नीति का क्रमिक विकास हुआ। अकबर ने अपनी नीति द्वारा राजपूत राजाओं को स्पष्ट कर दिया था कि वह उनके राज्य पर अधिकार नहीं करना चाहता और न उनके सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप करना चाहता है। वह चाहता है कि राजपूत राजा नवीन साम्राज्य का प्रभुत्व स्वीकार कर लें। डाॅ आर० पी० त्रिपाठी के अनुसार इस प्रभुत्व को स्वीकार करने के चार अर्थ थे -
- वे खिराज के रूप में राज्य के केन्द्रीय शासन को प्रतीक के रूप में कुछ रकम देते रहें।
- वे अपनी बाह्य नीति तथा पारस्परिक युद्ध द्वारा अपने जिन अधिकारों की रक्षा करते थे, उन अधिकारों की रक्षा का भार केन्द्रीय शासन को समर्पित कर दें।
- आवश्यकतानुसार वे केन्द्र को नियत सैनिक सहायता पहुँचाते रहें।
- वे अपने को साम्राज्य का अविभाज्य अंग माने, अलग इकाई न बने।
अकबर अपनी नीति को केवल सन्धि वार्ताओं द्वारा ही सफल नहीं बना पाया। इसके लिए उसे युद्ध भी करने पड़े। मेड़ता और रणथम्भौर में शक्ति का प्रयोग किया गया। मारवाड़, बीकानेर जैसलमेर ने बिना सामना किए सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली। मेवाड़ ने सम्राट के प्रस्ताव को अपमानजनक समझा और दीर्घकाल तक युद्ध किया। डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ ने मेवाड़ का साथ छोड़कर सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने सभी राजपूत राजाओं को आन्तरिक स्वायत्तता देने में समानता की नीति अपनायी, भले ही उसने युद्ध किया हो या न किया हो।
सार्वभौमिक शक्ति के रूप में अकबर ने राजस्थान के महत्वपूर्ण दुर्गों पर अधिकार रखा और राजस्थान को अजमेर सूबे के रूप में गठित किया गया। राजपूतों की जागीरों को वतन जागीर कहा गया।
राजपूत नीति के परिणाम –
- मुगल साम्राज्य को सर्वश्रेष्ठ भारतीय सैनिकों की सेवाएँ प्राप्त हुईं। राजपूतों के शौर्य और उनकी निष्ठा का मुगल साम्राज्य के विस्तार तथा संगठन में महत्वपूर्ण योगदान था। अभी तक उन्होंने दिल्ली की सत्ता का विरोध किया था लेकिन अब वे उसके प्रबल समर्थक बन गए। भारत के सुदूर क्षेत्रों में जाकर उन्होंने साम्राज्य की रक्षा के लिए अपने जीवन को बलिदान किया।
- इससे राजस्थान में भी शान्ति स्थापित हुई क्योंकि अब राजपूत राजा अपने राज्यों की सुरक्षा सम्बन्धी चिन्ताओं से मुक्त होकर साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेशों में जा सकते थे।
- मुगल साम्राज्य में राजपूत मनसबदारों का अभिजात वर्ग संगठित हुआ। साम्राज्य के उच्च पदों पर होने से उनका दरबार में तथा सम्राट पर पर्याप्त प्रभाव था और वे तूरानी या ईरानी अमीरों के समान ही साम्राज्य की शक्ति बन गए थे।
- राजस्थान की विजय से भारत की राजनीतिक एकता पूर्ण हुई, राजस्थान का विकास हुआ और दक्षिण में मुगल साम्राज्य के विस्तार का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- मुगल साम्राज्य में राजपूतों ने जो सहयोग दिया उससे हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुआ और इससे सांस्कृतिक क्षेत्र में समन्वय की प्रक्रिया आरम्भ हुई।
- इससे कला और साहित्य के क्षेत्रों में नवीन आदर्श व मापदण्ड स्थापित हुए और हिन्दुस्तान में दीर्घकाल तक शान्ति स्थापित हुई।
आलोचनात्मक समीक्षा –
अकबर की राजपूत नीति की आलोचना भी की गई है।अनेक इतिहासकारों का मत है कि इस नीति का राजपूतों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। इससे राजपूतों की एकता नष्ट हो गई। अब राजपूतों में निम्न तीन प्रकार के राजा थे –
- मेवाड़ का राणा, जो मुगल साम्राज्य से युद्ध करके राजपूत गौरव तथा शौर्य का प्रतीक बन गया था।
- वे राजपूत राजा, जिन्होंने अधीनता तो स्वीकार कर ली दी लेकिन विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं किए थे।
- वे राजपूत राजा, जिन्होंने मुगलों से विवाह सम्बन्ध स्थापित कर लिये थे, जैसे – आमेर, बीकानेर और जैसलमेर के राज्य।
इन तीनों श्रेणियों में अन्तर बना रहा। इस नीति के अन्तर्गत राजपूत राजाओं की स्वतन्त्रता धीरे-धीरे कम होती गयी। बहुत अधिक समय तक बाहर रहने से उनका अपने राज्यों में प्रशासन दोषपूर्ण और शिथिल हो गया। राजपूत राजाओं ने अपने दलगत विवादों में मुगल सम्राट की सहायता लेने का प्रयत्न किया जो राजपूत हितों के लिए हानिकारक था।
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