कौटिल्य की विदेश नीति
कौटिल्य भारत के इतिहास में सबसे अधिक प्रबुद्ध राजनीतिज्ञ तथा मन्त्री के रूप में जाने जाते हैं। कौटिल्य एक उत्कृष्ट वर्ग के दार्शनिक तथा एक नीति-उपदेशक थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित सिद्धान्त वर्तमान राजनीति एवं कूटनीति के सन्दर्भ में अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में विदेश नीति का विश्लेषण विस्तारपूर्वक किया गया है।
Kautilya |
कौटिल्य ने दूसरे राज्य के सम्बन्ध में दो सिद्धान्तों का वर्णन किया है –
- पड़ोसी राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने हेतु मंडल सिद्धान्त
- दूसरे राज्यों के साथ व्यवहार निश्चित करने हेतु षाड्गुण्य नीति
कौटिल्य का मंडल सिद्धान्त -
कौटिल्य ने मंडल सिद्धान्त का वर्णन अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण में किया है। मंडल का तात्पर्य देशों के समूह से है। कौटिल्य ने मंडल के अन्तर्गत 12 प्रकार के राज्यों का वर्णन किया है। इन बारह राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों को ही मंडल सिद्धान्त नाम दिया गया है। इसके अन्तर्गत मंडल का केन्द्र ऐसा राज्य होता है जो पड़ोसी राज्य को जीतकर अपने में मिलाने का प्रयत्न करता है। जिसे विजिगीषु राज्य कहते हैं। कौटिल्य के इस सिद्धान्त के बारह राज्यों का संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार किया गया है।
1. विजिगीषु राज्य –
यह राज्य स्वयं की राज्य सीमाओं का विस्तार करने का आकांक्षी होता है। इसका मंडल के केन्द्र में स्थान होता है।
2. अरि –
विजिगीषु के सम्मुख स्थित राज्य शत्रु होता है यही अरि कहलाता है।
3. मित्र –
अरि राज्य के सामने राज्य मित्र होता है। यह विजिगीषु का मित्र होता है।
4. अरिमित्र –
अरिमित्र वह राज्य होता है जो मित्र राज्य के आगे होता है। यह अरि राज्य का मित्र और विजिगीषु का शत्रु होता है।
5. मित्र-मित्र –
अरिमित्र के सामने वाला राज्य मित्र-मित्र होने के कारण यह मित्र राज्य और विजिगीषु दोनों का मित्र होता है।
6. अरि मित्र-मित्र –
यह राज्य अरिमित्र राज्य का मित्र राज्य होता है परन्तु विजिगीषु का शत्रु राज्य होता है।
7. पार्ष्णिग्राह –
यह राज्य विजिगीषु राज्य के पृष्ठ भाग में स्थित राज्य है। यह अरि राज्य की भाँति विजिगीषु का शत्रु होता है।
8. आक्रंद –
पार्ष्णिग्राह के पीछे आक्रंद राज्य स्थित होता है। विजिगीषु का यह राज्य मित्र होता है।
9. पार्ष्णिग्राहसार –
यह राज्य पार्ष्णिग्राह का मित्र राज्य होता है और आक्रंद राज्य के पृष्ठ भाग में स्थित होता है। विजिगीषु का यह शत्रु राज्य होता है।
10. आक्रंदसार –
पार्ष्णिग्राहसार के पृष्ठ भाग वाला राज्य आक्रंदसार कहा जाता है। यह आक्रंद एवं विजिगीषु का मित्र होता है।
11. मध्यमा –
यह राज्य विजिगीषु एवं अरि राज्यों की सीमाओं से भिन्न स्थित होता है। दोनों राज्यों से अधिक शक्तिशाली होने के कारण यह राज्य आवश्यकता होने पर किसी एक राज्य का सहयोग या दोनों से भिन्न-भिन्न प्रतिस्पर्धा भी कर सकता है।
12. उदासीन –
इस प्रकार के राज्य विजिगीषु, अरि एवं मध्यमा राज्य की सीमा से पृथक होता है। यह अत्यन्त शक्तिशाली होता है। आवश्यकता पड़ने पर स्वयं की इच्छानुसार यह राज्य विजिगीषु, अरि एवं मध्यमा राज्य की सहायता भी कर सकता है।
कौटिल्य की षाड्गुण्य नीति –
कौटिल्य ने राज्य के परराष्ट्रीय सम्बन्धों हेतु अपनी षाड्गुण्य नीति अपनायी है। इसमें एक राज्य दूसरे राज्य के साथ अपने सम्बन्ध किस परिस्थिति में कैसा रखता है, का वर्णन किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी राज्य को स्वयं की विदेश नीति का निर्माण या संचालन निम्नलिखित छः लक्षणों पर करना चाहिए –
1. सन्धि –
दो राजाओं के मध्य आपसी समझौते को सन्धि कहते हैं। कौटिल्य के अनुसार किसी राजा का सन्धि करने के समय उद्देश्य यही होना चाहिए कि वह शत्रु राज्य की सत्ता नष्ट कर स्वयं को सत्तापूर्ण बनाए।
2. विग्रह –
इसका तात्पर्य युद्ध करने से है। एक राजा द्वारा निर्बल राजा के विरुद्ध प्रयुक्त किया जाता है। कौटिल्य के अनुसार राजा को विग्रह का अनुसरण उस परिस्थिति में करना चाहिए जब वह स्वयं के शत्रु को अपने से कमजोर समझे अथवा उसकी युद्ध व्यवस्था मजबूत हो।
3. आसन –
आसन से तात्पर्य तटस्थ रहने से है। कौटिल्य का मानना है कि जब एक राजा अन्य राजाओं के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हुए शान्तिपूर्वक स्वयं की शक्ति में वृद्धि करता है तो वह नीति आसन नीति कहलाती है।
4. संश्रय –
इसका अर्थ शरण लेने से है। कौटिल्य के अनुसार एक राजा यदि स्वयं के शत्रु राजा को हानि पहुंचाने में असमर्थ होता है तो ऐसी स्थिति में उसे स्वयं से अधिक शक्तिशाली राज्य की शरण लेनी चाहिए।
5. यान –
इसका तात्पर्य आक्रमण अथवा युद्ध अभियान है। विग्रह के पश्चात् यह पद वास्तविकता पर आधारित होता है। एक राजा आक्रमण तभी कर सकता है जब उसे यह विश्वास हो कि बिना युद्ध के उस स्थिति को नियन्त्रित नहीं किया जा सकता। कौटिल्य के अनुसार यान विदेश नीति के निर्धारण एवं संचालन में महत्वपूर्ण होता है।
6. द्वैधीभाव –
द्वैधीभाव का अर्थ है एक राजा से शान्ति का समझौता करके अन्य के साथ युद्ध करने की नीति।
उपर्युक्त नीतियों का अनुसरण कौटिल्य के अनुसार एक राजा को राज्य के कल्याण की दृष्टि से किया जाना चाहिए।
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