मेगास्थनीज 

मेगास्थनीज प्राचीन भारत का प्रथम राजदूत था। वह सीरिया के शासक सेल्यूकस का राजदूत था जो 304 ई० पू० चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। यवन राजदूत मेगास्थनीज ने भारत में जो कुछ देखा व सुना उसे इण्डिका नामक ग्रन्थ में लेखबद्ध किया था। दुर्भाग्यवश, यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। परन्तु, परगामी लेखकों जैसे – स्ट्रेबो, एरियन, प्लिनी आदि के ग्रन्थों में इसके उद्धरण सुरक्षित हैं। सर्वप्रथम डॉ० स्वानबेक ने 1846 ई० में मेगास्थनीज के इन उद्धरणों को संग्रहित किया, जिसे बाद में मैकक्रिंडिल ने अंग्रेजी में अनुवादित किया। मेगास्थनीज के अनुसार भारत की तत्कालीन स्थिति का वर्णन निम्न प्रकार है –

Mauryan empire
Mauryan Empire 

भौगोलिक स्थिति –

मेगास्थनीज के अनुसार भारतवर्ष का आकार एक चतुर्भुज के सदृश्य था। इसके उत्तर में हिमालय पर्वत, दक्षिण व पूर्व में समुद्र और पश्चिम में सिन्धु,  गंगा, सोन, कोसी, गंडक, राप्ती, गोमती नदियों के नाम उल्लिखित हैं। सबसे बड़ी नदी गंगा है, जो पर्वतीय प्रदेशों से निकलकर पूर्व की ओर मैदान में बहती हुई पैली बोथ्रा (पाटलिपुत्र) से होकर आगे समुद्र में गिरती है। उसने ऋतुओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वर्षा, गर्मी व जाड़ा दोनों ऋतुओं में होती है परन्तु ग्रीष्म ऋतु में वर्षा अधिक होती है और गर्मी काफी पड़ती है।

सामाजिक स्थिति –

भारत के लोग अच्छे वस्त्र पहनने के शौकीन थे। ये लोग भोजन में चावल का प्रयोग बहुतायत में करते थे। वे मदिरा का प्रयोग एक मात्र यज्ञों व उत्सवों आदि के अवसरों पर ही करते थे। वहाँ का समाज सात जातियों में विभक्त था –

1. ब्राह्मण और दार्शनिक –

समाज का यह आदरणीय वर्ग था। ये प्रायः धन-धान्य आदि की वृद्धि हेतु राजा को सम्मतियाँ देते थे। राजा इनकी सेवाओं को देखते हुए इन्हें करों से मुक्त कर दिया करता था। प्रायः वर्ष में एक बार राजा इन्हें बुलाकर यज्ञ करता था। इनके द्वारा जनता भी अपने व्यक्तिगत यज्ञ आदि करवाती थी।

2. कृषक –

समाज के इस बहुसंख्यक वर्ग का कर्म कृषि था। ये सैन्य सेवा से मुक्त थे। युद्धकाल में भी इन्हें क्षति नहीं पहुँचाई जाती थी। ये अपनी उपज का ¼ भाग राजा को कर के रूप में देते थे।

3. पशुपालक व आखेटक –

पशुपालक पशुओं को पालते, बेचते व किराये पर देते थे। आखेटक वन्य पशुओं का शिकार करते थे, जिससे वे समाज व कृषि की रक्षा करते थे। इसके लिए वे राज्य से धन भी पाते थे।

4. व्यापारी व शिल्पी –

व्यापारी आन्तरिक व विदेशों से भी व्यापार करते थे। इन्हें विदेश-व्यापार हेतु जलपोत राज्य से उधार प्राप्त होते थे। शिल्प व्यवसायियों में विविध प्रकार के कारीगर व श्रमजीवी भी थे, जो विभिन्न प्रकार के शिल्पिक कार्य व लघु उद्योग-धन्धे करते थे। कुछ शिल्पी राज्य के अस्त्र-शस्त्र, औजार, जलपोत आदि के कार्यालयों में कार्य करते व राजकोष से वेतन पाते थे।

5. योद्धा –

इनका कार्य युद्ध था। युद्धकाल में ये युद्ध और शान्तिकाल में आराम व अभ्यास का जीवन व्यतीत करते थे। इनकी संख्या बड़ी थी, ये राजकोष पर निर्भर थे।

6. गुप्तचर व निरीक्षक –

राज्य के कार्य का निरीक्षण करना व इनकी सूचना राजा को देना, इनका मुख्य काम था। प्रायः योग्य व विश्वसनीय निरीक्षक राजधानी व राजशिविर में नियुक्त किए जाते थे।

7. मन्त्री व परामर्शदाता –

इनका कार्य राजा को मंत्रणा व परामर्श देना था। ये अधिक शिक्षित, सुसंस्कृत व चरित्रवान होते थे और राज्य के ऊँचे-ऊँचे पदों पर कार्य करते थे। इनकी संख्या प्रायः कम थी। 

समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी, जो सम्भवतः राजवंशों, धनसम्पन्न व्यक्तियों तक ही सीमित दी। विवाह का उद्देश्य भोग-विलास, सहकारिता-प्राप्ति व पुत्र प्राप्ति होता था। शिक्षा का कार्य मुख्यतया ब्राह्मणों के हाथ में था। मेगास्थनीज का कथन है कि भारतीय लेखन-कला से अनभिज्ञ थे। लोग स्मृत-स्तम्भों में विश्वास नहीं करते थे और व्यक्ति के देहांत के बाद उसके विशिष्ट गुणों का स्मरण कर लेना ही समुचित मानते थे। परन्तु वह दूसरे स्थान पर कहता है कि शवों के ऊपर छोटी-छोटी समाधियाँ बनाई जाती थीं।

धार्मिक स्थिति –

मेगास्थनीज ने ब्राह्मण-सन्यासियों और श्रमणों का भी उल्लेख किया है। ये भोग-विलास से दूर सरल सात्विक जीवन व्यतीत करते और कुशासनों या मृगचर्मों पर सोते थे। ये प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान को घूमते रहते थे और इनका अधिकांश समय उपदेश में ही व्यतीत होता था। यहाँ के लोगों के धार्मिक विश्वासों का उल्लेख करते हुए मेगास्थनीज लिखता है कि वे पुनर्जन्म में विश्वास करते थे और देवताओं की पूजा करते थे। उसका यह कथन भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है कि भारत में यूनानी देवता डिआनीसियस और हेरक्लीज की भी पूजा होती थी। वास्तव में डिआनीसियस और हेरक्लीज से तात्पर्य शिव और कृष्ण से था, जिनकी पूजा उस समय शिवि तथा शूरसेन राज्यों में होती थी।

आर्थिक स्थिति –

यहाँ के लोग धन-धान्यपूर्ण थे और विभिन्न प्रकार के व्यवसाय करते थे, जिनमें कृषि प्रमुख थी। भूमि उर्वरा थी। वर्ष में दो फसलें होती थीं। कृषि की सदैव रक्षा की जाती थी अतः युद्ध काल में भी खेतों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई जाती थी। उत्तम कृषि के लिए सिंचाई की ओर राज्य का विशेष ध्यान था। अनेक अधिकारी नदियों का प्रबन्ध करते, कुछ भूमि नापते तथा उन नालियों व प्रणालियों का निरीक्षण करते, जिनसे होकर पानी सिंचाई की नहरों में जाता था। कृषि के अतिरिक्त युद्ध-आयुद्धों व जहाजों के निर्माण का भी एक व्यवसाय था। सोना, चाँदी, ताँबा और लोहा उस समय की प्रमुख धातुएँ थीं, जिन्हें प्रयोग में लाया जाता था।

राजनीतिक जीवन –

राजा राज्य का सर्वोच्च पदाधिकारी था। उसकी सभा बड़ी शानो-शौकत, सज-धज और ठाठ-बाट से लगती थी। वह राजसभा में दिन भर रहता और न्याय करता रहता था। राजा को आखेट में बड़ी रूचि थी। वह राज्य के दूर-दूर प्रदेशों में हाथी पर आसीन होकर आखेट के लिए जाता था। राजा का राजप्रसाद पाटलिपुत्र नगर के मध्य में था। राजप्रसाद अपनी शान, सौन्दर्य और रमणीयता में पाश्चात्य सम्राटों के सूसा और एकबताना के राजमहलों से भी अधिक भव्य व सुन्दर था। मेगास्थनीज ने भारत के प्रसिद्ध नगरों में तक्षशिला, उज्जैनी, कौशाम्बी आदि का उल्लेख करते हुए, पाटलिपुत्र का विशेष वर्णन किया है। पाटलिपुत्र (पोलिबोथ्रा) नगर गंगा व सोन नदियों के संगम पर स्थित था और प्राच्य भारत का सबसे बड़ा नगर था। नगर के चारों ओर एक ऊँची दीवार थी, जिसमें 570 बुर्ज और 64 प्रवेश द्वार थे। समस्त पाटलिपुत्र का प्रबन्ध एक नगर-व्यवस्थापिका द्वारा होता था, जिसमें 30 सदस्य थे और 5-5 सदस्यों के 6 उपसमितियों में विभक्त थे। मेगास्थनीज ने राज्य के विभिन्न अधिकारियों का भी उल्लेख किया है। सैन्य कार्यालय में 30 सदस्य होते थे, जो 5-5 सदस्यों के 6 भागों में विभक्त थे  मेगास्थनीज के अनुसार राज्य में अपराध बहुत कम होते थे। यहाँ का दण्ड विधान बड़ा कठोर था। छोटे-मोटे अपराधों के लिए भी अंग-भंग का दण्ड दिया जाता था।

मेगास्थनीज के विवरण की आलोचना –

मेगास्थनीज के भारत विवरण पर विद्वानों में काफी मतभेद रहा है। कुछ विद्वानों ने इसे काल्पनिक और कुछ ने भ्रम व जनश्रुतियों से पूर्ण माना है। वास्तव में मेगास्थनीज को यहाँ की भौगोलिक स्थिति व भाषा आदि का ज्ञान न था। उसकी बहुत सी जानकारी जनश्रुति, कल्पना व अयिरंजना पर आधारित प्रतीत होती है। फलतः उसके विवरण में अनेक अशुद्धियाँ व त्रुटियाँ भी हैं। अतएव इसकी कटु आलोचना की गयी। यद्यपि मेगास्थनीज के विवरण में कुछ अतिशयोक्ति, असत्य व भ्रम हो सकता है, फिर भी उसे अमहत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता और वह भारतीय इतिहास के एक स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण ही है।

 



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